अमरनाथ की अमरकथा का रहस्य जानिए...


अमरनाथ की अमरकथा का रहस्य जानिए...

केदारनाथ से आगे है अमरनाथ और उससे आगे है कैलाश पर्वत। कैलाश पर्वत शिवजी का मुख्‍य समाधिस्थ होने का स्थान है तो केदारनाथ विश्राम भवन। हिमालय का कण-कण शिव-शंकर का स्थान है। अमरनाथ गुफा हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थस्‍थल है। आजकल बाबा अमरनाथ को 'बर्फानी बाबा' कहकर प्रचारित करने का चलन भी चल रहा है। उन्हें बर्फानी बाबा इसलिए कहा जाता है कि उनके स्थान पर प्राकृतिक रूप से बर्फ का शिवलिंग निर्मित होता है। इस पवित्र गुफा में हिम शिवलिंग के साथ ही एक गणेश पीठ व एक पार्वती पीठ भी हिम से प्राकृतिक रूप में निर्मित होता है। पार्वती पीठ ही शक्तिपीठ स्थल है। यहां माता सती के कंठ का निपात हुआ था। पार्वती पीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां माता के अंग तथा अंगभूषण की पूजा होती है। ऐसे बहुत से तीर्थ हैं, जहां प्राचीनकाल में सिर्फ साधु-संत ही जाते थे और वहां जाकर वे तपस्या करते थे। लेकिन आजकल यात्रा सुविधाएं सुगम होने के चलते व्यक्ति कैलाश पर्वत और मानसरोवर भी जाने लगा है। ये वे स्‍थान हैं, जो हिन्दुओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं।  तो आयीये जानते है बाबा अमरनाथ का इतिहास और वर्तमान। 

अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है क्यों कि यहीं पर भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था।

यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों लोग यहां आते हैं। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।

असल में यह अमरेश्वर महादेव का स्थान है। प्राचीनकाल में इसे 'अमरेश्वर' कहा जाता था। पुराणों मे इसका उल्लेख है। कालांतर मे हे स्थान लोगों की पहुच से बाहर हो गया था अमरनाथ की कथा को तो सब जानते थे पर अब वो गुफा कहा है इसका पता किसी को नथा वर्तमान समय मे इस गुफा को पहली बार किसी मुस्लिम ने 18वीं-19वीं शताब्दी में खोज निकाला था।वह गुज्जर समाज का एक गडरिया था, जिसे बूटा मलिक कहा जाता है।

अब सवाल उठता है की क्या गडरिया इतनी ऊंचाई पर, जहां ऑक्सीजन नहीं के बराबर रहती है, वहां अपनी बकरियों को चराने ले गया था?

उसक उत्तर है की वो वहा बकरिया चरना नही गया था बल्की  उसकी एक  बकरी खो गयी थी उसे ढूंढते ढूंढते वो इतनी ऊंचाईपर अनजाने ही पहोच गया था और उसे बर्फ से बने शिवलिंग के दर्शन हुये। ये बात उसने अपनी खोयी हुयी एक बकरी को लेकर वापस आने के बाद सब को बतायी। 

स्थानीय इतिहासकार मानते हैं कि 1869 के ग्रीष्मकाल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थयात्रा 3 साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे। ये यात्रा क्रम आज भी चल रहा है ।

एक अंग्रेज लेखक लारेंस अपनी पुस्तक 'वैली ऑफ कश्मीर' में लिखते हैं कि पहले मट्टन के कश्मीरी ब्राह्मण अमरनाथ के तीर्थयात्रियों की यात्रा कराते थे। बाद में बटकुट में मलिकों ने यह जिम्मेदारी संभाल ली, क्योंकि मार्ग को बनाए रखना और गाइड के रूप में कार्य करना उनकी जिम्मेदारी थी। वे ही बीमारों, वृद्धों की सहायता करते और उन्हें अमरनाथ के दर्शन कराते थे इसलिए मलिकों ने यात्रा कराने की जिम्मेदारी संभाल ली। इन्हें मौसम की जानकारी भी होती थी। 

गडरिया शब्द का अर्थ :

1. भेड़ बकरियाँ चरानेवाला। 

2.भेड़-बकरी पालने वाला व्यक्ति

3.भेड़ों की ऊन से जीविकोपार्जन करने वाली जाति।

वास्तव गडरिया कोई जाति नहीं थी यह एक पेशा हुआ करता था किन्तु प्राचीन समय में पेशे से ही जाति की उत्पत्ति होती थी जैसे चमड़े का कार्य करने वाले चर्मकार अथवा चमार बन गए,लकड़ी का कार्य करने वाले बढाई बन गए लोहे का कार्य करने वाले लोहार बन गए इसी प्रकार भेड पालने वाले गडरिया बन गए!

गडरिया/ धनगर समाज की उत्पत्ति कैसे हुई? ये भी बहोत ही रोचक कथा है ।

कहा जाता है कि पहले भेड़-बकरियां एक चींटी-पहाड़ी से निकली. यह खेतों में फैल गए और फसल का नुकसान करने लगे. असहाय होकर किसानों ने भगवान शिव से उन्हें इनसे बचाने की प्रार्थना की. इसके बाद भगवान शिव ने भेड़-बकरियों को पालने के लिए गडरिया / धनगर को उत्पन्न किया.

गडरिया वंश का इतिहास देखा जाये तो विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय गडरिया मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। अशोक सम्राट गडरिया जाति के सबसे प्रतापी राजा थे। सम्राट अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक बिंदुसार मौर्य  (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय) था। उनका राजकाल ईसा पूर्व 269 से, 232 प्राचीन भारत में था।

दरअसल, मध्यकाल में कश्मीर घाटी पर विदेशी ईरानी और तुर्क आक्रमणों के चलते वहां अशांति और भय का वातावरण फैल गया जिसके चलते वहां से हिन्दुओं ने पलायन कर दिया। पहलगांव को विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं ने सबसे पहले इसलिए निशाना बनाया, क्योंकि इस गांव की ऐतिहासिकता और इसकी प्रसिद्धि इसराइल तक थी। भारतीय मान्यता अनुसार यहीं पर सर्वप्रथम यहूदियों का एक कबीला आकर बस गया था।

इस हिल स्टेशन पर हिन्दू और बौद्धों के कई मठ थे, जहां लोग ध्यान करते थे। ऐसा एक शोध हुआ है कि इसी पहलगांव में ही मूसा और ईसा ने अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए थे। बाद में उनको श्रीनगर के पास रौजाबल में दफना दिया गया। 

पहलगांव का अर्थ होता है गड़रिए का गांव यानी भेड़ बकरियाँ चरानेवालों का गाव , चरवाहों का गाव । ऐसे में जब आक्रमण हुआ तो 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग 300 वर्ष की अवधि के लिए अमरनाथ यात्रा बाधित रही। कश्मीर के शासकों में से एक था 'जैनुलबुद्दीन' (1420-70 ईस्वी), उसने अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी। फिर 18वीं सदी में फिर से शुरू की गई। वर्ष 1991 से 95 के दौरान आतंकी हमलों की आशंका के चलते इसे इस यात्रा को स्थगित कर दिया गया था।

यह भी जनश्रुति है कि मुगल काल में जब कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम किया जा रहा था तो पंडितों ने अमरनाथ के यहां प्रार्थना की थी। उस दौरान वहां से आकाशवाणी हुई थी कि आप सभी लोग सिख गुरु से मदद मांगने के लिए जाएं। संभवत: वे हरगोविंद सिंहजी महाराज थे। उससे पहले अर्जुन देवजी थे। अर्जुन देवजी से लेकर गुरु गोविंद सिंहजी तक सभी गुरुओं ने मुगलिया आतंक से भारत की रक्षा की थी। यानी आक्रमणोंके चलते अमरनाथ यात्रा बार बार खंडित हुयी है और घाटी के मौसम से भी यात्रा मे बार बार रूकावटे आती रहती है। पहिले तो एसी दुर्गम मार्ग की यात्रा ये कुछ गिने-चुने लोग ही करते थे जिस कारण अमरनाथ गुफा का रास्ता खो गया था जो गुज्जर समाज के एक मुस्लिम गडरिया द्वारा 18वीं-19वीं शताब्दी में फिर से खोज निकाला गया, जिसे बूटा मलिक कहा जाता है।  

आज भी चौथाई चढ़ावा इस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। आज भी कश्मीरी हिन्दू ब्राह्मण  ( पंडित ) और मुसलमान गडरिए के वंश जिन्हे मलिक कहा जाता है मिलकर अमरनाथ यात्रा संपन्न कराते है ये यात्रा हिन्दू मुस्लिम एकता का आपनेआपमें एक बहोत बढा प्रतिक है । 

सब से पहिली अमरनाथ यात्रा की पौराणिक मान्यता क्या है : 

पौराणिक मान्यता है कि एक बार कश्मीर की घाटी जलमग्न हो गई। उसने एक बड़ी झील का रूप ले लिया। जगत के प्राणियों की रक्षा के उद्देश्य से ऋषि कश्यप ने इस जल को अनेक नदियों और छोटे-छोटे जलस्रोतों के द्वारा बहा दिया। उसी समय भृगु ऋषि पवित्र हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान वहां से गुजरे। तब जल स्तर कम होने पर हिमालय की पर्वत श्रृखंलाओं में सबसे पहले भृगु ऋषि ने अमरनाथ की पवित्र गुफा और बर्फानी शिवलिंग को देखा। मान्यता है कि तब से ही यह स्थान शिव आराधना का प्रमुख देवस्थान बन गया और अनगिनत तीर्थयात्री शिव के अद्भुत स्वरूप के दर्शन के लिए इस दुर्गम यात्रा की सभी कष्ट और पीड़ाओं को सहन कर लेते हैं। यहां आकर वह शाश्वत और अनंत अध्यात्मिक सुख को पाते हैं।

अमरनाथ गुफा कहा स्थित है ? 

अमरनाथ गुफा जम्मू - कश्मीर राज्य के गांदरबल जिले मे अमरनाथ पर्वत पर मौजूद है। ये गुफा दक्षिण कश्मीर मे है जो श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में १३५ सहस्त्रमीटर दूर समुद्रतल से १३,६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है। गुफा ११ मीटर ऊँची है। 


कितनी प्राचीन गुफा? : 

जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से करीब 141 किलोमीटर दूर 3,888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा को पुरातत्व विभाग वाले 5 हजार वर्ष पुराना मानते हैं अर्थात महाभारत काल में यह गुफा थी। लेकिन उनका यह आकलन गलत हो सकता है, क्योंकि सवाल यह उठता है कि जब 5 हजार वर्ष पूर्व गुफा थी तो उसके पूर्व क्या गुफा नहीं थी?....हिमालय के प्राचीन पहाड़ों को लाखों वर्ष पुराना माना जाता है। उनमें कोई गुफा बनाई गई होगी तो वह हिमयुग के दौरान ही बनाई गई होगी अर्थात आज से 12 से 13 हजार वर्ष पूर्व।

पुराण के अनुसार काशी में दर्शन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हजार गुना पुण्य देने वाले श्री बाबा अमरनाथ के दर्शन हैं। और कैलाश को जो जाता है, वह मोक्ष पाता है। पुराण कब लिखे गए? कुछ महाभारतकाल में और कुछ बौद्धकाल में। तब पुराणों में इस तीर्थ का जिक्र है। इसके बाद ईसा पूर्व लिखी गई कल्हण की 'राजतरंगिनी तरंग द्वि‍तीय' में उल्लेख मिलता है कि कश्मीर के राजा सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वीं) शिव के भक्त थे और वे पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा करने जाते थे। बर्फ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता।

इस उल्लेख से पता चलता है कि यह तीर्थ कितना पुराना है। पहले के तीर्थ में साधु-संत और कुछ विशिष्ट लोगों के अलावा घरबार छोड़कर तीर्थयात्रा पर निकले लोग ही जा पाते थे, क्योंकि यात्रा का कोई सुगम साधन नहीं था इसलिए कुछ ही लोग दुर्गम स्थानों की तीर्थयात्रा कर पाते थे। 

बृंगेश संहिता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में अमरनाथ तीर्थ का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है, जहां तीर्थयात्रियों को अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनंतनया (अनंतनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग, 3454 मीटर), पंचतरंगिनी (पंचतरणी, 3,845 मीटर) और अमरावती शामिल हैं।

यहा हिम शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं भगवान शिव अमरनाथ की गुफा का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि यहां हिम शिवलिंग का निर्माण होता है. इस गुफा का महत्व इसलिए भी है क्‍योंकि इसी गुफा में भगवान शिव ने अपनी पत्नी देवी पार्वती को अमरत्व का मंत्र सुनाया था. ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव साक्षात श्री अमरनाथ गुफा में विराजमान रहते हैं.

अमरनाथ यात्रा

अमर नाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बलटाल से। यानी कि पहलमान और बलटाल तक किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दूरी केवल १४ किलोमीटर है और यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टि से भी संदिग्ध है। इसीलिए सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। रास्ते में किसी अनहोनी के लिए भारत सरकार जिम्मेदारी नहीं लेती है।

पहलगाम से अमरनाथ

पहलगाम जम्मू से ३१५ किलोमीटर की दूरी पर है। यह विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यहाँ का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू-कश्मीर पर्यटन केंद्र से सरकारी बस उपलब्ध रहती है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है।

पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। इसके ठीक दूसरे दिन पिस्सु घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। कहा जाता है कि पिस्सु घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें राक्षसों की हार हुई। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा कठिन नहीं है। चंदनबाड़ी से आगे इसी नदी पर बर्फ का यह पुल सलामत रहता है।

चंदनबाड़ी से १४ किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। अमरनाथ यात्रा में पिस्सू घाटी काफी जोखिम भरा स्थल है। पिस्सू घाटी समुद्रतल से ११,१२० फुट की ऊँचाई पर है। यात्री शेषनाग पहुँच कर ताजादम होते हैं। यहाँ पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। इस झील में झांककर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।

शेषनाग से पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं, जिनकी समुद्रतल से ऊँचाई क्रमश: १३,५०० फुट व १४,५०० फुट है। महागुणास चोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। यहाँ पांच छोटी-छोटी सरिताएँ बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊँचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहाँ सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं।

अमरनाथ की गुफा यहाँ से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं और रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुँच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा अर्चना कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग तक वापस पहुँच जाते हैं। यह रास्ता काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुँचते ही सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।

बलटाल से अमरनाथ- 

जम्मू से बलटाल की दूरी ४०० किलोमीटर है। जम्मू से उधमपुर के रास्ते बलटाल के लिए जम्मू कश्मीर पर्यटक स्वागत केंद्र की बसें आसानी से मिल जाती हैं। बलटाल कैंप से तीर्थयात्री एक दिन में अमरनाथ गुफा की यात्रा कर वापस कैंप लौट सकते हैं।

आस्था की प्रतीक छड़ी मुबारक

अमरनाथ यात्रा में पवित्र हिमलिंग के दर्शनों के अतिरिक्त सर्वाधिक महत्व की चीज छड़ी मुबारक है। सरकारी तौर पर भले ही यात्रा की तिथियां कुछ भी हो लेकिन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यात्रा की अवधि छड़ी मुबारक से जुड़ी है। अर्थात व्यास पूर्णिमा ( गुरू पूर्णिमा ) से श्रावण पूर्णिमा यानि रक्षा बंधन तक।

वस्तुत: छड़ी मुबारक की रस्म चांदी की एक छड़ी से जुड़ी है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस छड़ी में भगवान शिव की अलौकिक शक्तियां निहित हैं। जनश्रुति है कि महर्षि कश्यप को यह छड़ी भगवान शिव ने इस आदेश के साथ सौंपी थी कि इसे प्रति वर्ष अमरनाथ लाया जाए। अमरनाथ यात्रा की औपचारिक शुरुआत के लिए व्यास पूर्णिमा के दिन छड़ी मुबारक भूमि पूजन व ध्वजारोहण हेतु श्रीनगर से पहलगाम के लिए रवाना की जाती है। इसके बाद रक्षा बंधन से एक पखवाड़ा पूर्व सोमवती अमावस्या के दिन इसे एक अन्य पूजा के लिए श्रीनगर स्थित शंकराचार्य मंदिर ले जाया जाता है। यहां से यह शरीका भवानी मंदिर और फिर आगे छड़ी स्थापना व ध्वजारोहण समारोह के लिए दशनामी अखाड़ा ले जाई जाती है। तदुपरांत नाग पंचमी के दिन छड़ी पूजन किया जाता है और इसके ठीक पांच दिन बाद इसे अमरनाथ के लिए रवाना किया जाता है। पहलगाम से अमरनाथ के मार्ग पर छड़ी मुबारक का शेषनाग, पंजतरणी आदि पड़ावों पर ठहराव होता है और अंतत: रक्षाबंधन वाले दिन यह अमरनाथ गुफा पहुंचती है। वहां छड़ी मुबारक की पूजा-अर्चना के साथ ही अमरनाथ यात्रा संपन्न हो जाती है। वापसी में इसे पहलगाम लाकर लिद्दर नदी के जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।

छड़ी मुबारक को अमरनाथ यात्रा पर ले जाने का दायित्व दशनामी अखाड़ा श्रीनगर के महंत के ऊपर होता है। वर्तमान में अखाड़े के अधिष्ठाता महंत दीपेंद्र गिरी हैं।

कल्हण रचित ग्रंथ राजतरंगिणी के अनुसार श्री अमरनाथ यात्रा का प्रचलन ईस्वी से भी एक हजार वर्ष पूर्व का है। एक किंवदंती यह भी है कि कश्मीर घाटी पहले एक बहुत बड़ी झील थी जहां सर्पराज नागराज दर्शन दिया करते थे। अपने संरक्षक मुनि कश्यप के आदेश पर नागराज ने कुछ मनुष्यों को वहां रहने की अनुमति दे दी। मनुष्यों की देखा-देखी वहां राक्षस भी आ गए जो बाद में मनुष्य व नागराज दोनों के लिए सिरदर्द बन गए। अंतत: नागराज ने कश्यप ऋषि से इस संबंध में बातचीत की। कश्यप ऋषि ने अपने अन्य संन्यासियों को साथ लेकर भगवान भोले भंडारी से प्रार्थना की। तब शिव भोले नाथ ने प्रसन्न होकर उन्हें एक चांदी की छड़ी प्रदान की। यह छड़ी अधिकार एवं सुरक्षा की प्रतीक थी। भोलेनाथ ने आदेश दिया कि इस छड़ी को उनके निवास स्थान अमरनाथ ले जाया जाए जहां वह प्रकट होकर अपने भक्तों को आशीर्वाद देंगे। संभवत: इसी कारण आज भी चांदी की छड़ी लेकर महंत यात्रा का नेतृत्व करते हैं। रक्षा बंधन वाले दिन पवित्र श्री अमरनाथ गुफा पहुंचने पर पवित्र हिमशिवलिंग के पास महंत पारम्परिक विधि विधान और वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ छड़ी मुबारक का पूजन करेंगे। इस विशाल पूजा के साथ 40 दिन चलने वाली पवित्र अमरनाथ यात्रा का समापन हो जाता है। पवित्र एवं पावन गुफा में पूजन के उपरांत 2 दिन बाद लिद्दर नदी के किनारे पहलगांव में पूजन एवं विसर्जन की रस्म अदा की जाती है और शिव भक्त फिर से अगले वर्ष की यात्रा का इंतजार करने लगते है ।

अमरनाथ का शिवलिंग कैसे बनता है?

कैसे होता है पवित्र शिवलिंग का निर्माण? ये प्रश्न सब के मन मे उठता है। इसका उत्तर प्रकृति मे छिपा है ।अमरनाथ में स्थित पवित्र गुफा हिमालय की गोद में स्थित है. ये गुफा ग्लेशियरों और बर्फीले पहाड़ों से घिरी है. गर्मी के मौसम में कुछ दिनों को छोड़कर ये पवित्र गुफा साल के ज्यादतर समय में बर्फ से ढक जाती है. सबसे विशेष बात ये है कि इस पवित्र गुफा में प्रत्येक साल शिवलिंग अपने आप प्राकृतिक तौर से बनता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक गुफा में ऊपर से एक दरार से पानी की बूंदे टपकती है और फिर शिवलिंग का निर्माण होता है. काफी ठंड की वजह से ये पानी की बूंदे जम जाती है और शिवलिंग के आकार में ढलती है. गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। ऐसा माना जाता है कि ये शिवलिंग चांद की रोशनी के आधार पर घटता-बढ़ता है.

आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड भी बनते हैं।

क्या है पौराणिक कथा?

पौराणिक कथा है कि एक बार माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ से उनकी अमरता का कारण जानना चाहा, जिसके बाद भगवान शिव ने उन्हें अमर कथा सुनने की बात कही. अमरकथा सुनने के लिए काफी जगह तलाशने के बाद वे अमरनाथ गुफा में पहुंच गए. इस गुफा में जाने से पहले भगवान शंकर ने नंदी, चंद्रमा, शेषनाग और गणेश भगवान को अलग-अलग जगहों पर छोड़ दिया. भगवान ने गुफा के चारों ओर रहने वाले हर जीवों को निकल जाने का भी आदेश दिया ताकि कोई ये कथा न सुन सके. जब भगवान भोलेनाथ ने ये कथा सुनाई तो कबूतर के एक जोड़े ने ये कथा सुन ली और अमर हो गए. जो शापित रूद्रगण थे। ये कबूतर की जोडी यहा आज भी दिखाई देती है जब की वहा इतनी उचायी और ठंड मे कोई अन्य कबूतर या पक्षी दिखाई नही देते है । ये कथा एक शूक यानी तोते के बच्चे ने भी सूनी जिसे मारने भगवान् शिव दौड़े पर वो भागकर वेदव्यास के पत्नी के गर्भ मे छिप गया और 12 साल वही रह के तपस्या की जब व्यासजीने भगवान् शिवजी से प्रार्थना की तो भगवान् शिव ने गर्भ रूपी शुक को वरदान दिया कि उनकी माया उसे नही सतायेंगी तब वो शुक व्यासजीके पुत्र के रूप मे प्रगट हुवा जिसने तुरंत ही सन्यास ले लिया और शूकमुनी /  शुकदेव ऋषि कहलाय यह वही शुकदेवजी है जिन्होने बादमे परीक्षित को भागवत कथा सुनायी ।  नारद संहिता के अनुसार महर्षि नारद को दिये वचन के कारण यही भगवान शिव और माता पार्वती बर्फ से बने शिवलिंग के तौर पर हर साल श्रावण मे  प्रकट होते है । इसी बात को थोडा विस्तार से समझते है ।

अमरकथा : 

अमरनाथ की पवित्र गुफा में भगवान शंकर ने भगवती पार्वती को मोक्ष का मार्ग दिखाया था। इस तत्वज्ञान को 'अमरकथा' के नाम से जाना जाता है इसीलिए इस स्थान का नाम 'अमरनाथ' पड़ा। यह कथा भगवती पार्वती तथा भगवान शंकर के बीच हुआ संवाद है। यह उसी तरह है जिस तरह कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद हुआ था।

क्यों सुनना चाहती थीं पार्वती अमरकथा...

सती ने दूसरा जन्म हिमालयराज के यहां पार्वती के रूप में लिया। पहले जन्म में वे दक्ष की पुत्री थीं तथा दूसरे जन्म में वे दुर्गा बनीं। एक बार पार्वतीजी से ने शंकरजी से पूछा, ‘मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है कि आपके गले में नरमुंड माला क्यों है? ’ भगवान शंकर ने बताया, ‘पार्वती! जितनी बार तुम्हारा जन्म हुआ है उतने ही मुंड मैंने धारण किए हैं।’

पार्वती बोली, ‘मेरा शरीर नाशवान है, मृत्यु को प्राप्त होता है, परंतु आप अमर हैं, इसका कारण बताने का कष्ट करें। मैं भी अजर-अमर होना चाहती हूं?'

भगवान शंकर ने कहा, ‘यह सब अमरकथा के कारण है।’

यह सुनकर पार्वतीजी ने शिवजी से कथा सुनाने का आग्रह किया। बहुत वर्षों तक भगवान शंकर ने इसे टालने का प्रयास किया, लेकिन जब पार्वती की जिज्ञासा बढ़ गई तब उन्हें लगा कि अब कथा सुना देना चाहिए।

अब सवाल यह था कि अमरकथा सुनाते वक्त कोई अन्य जीव इस कथा को न सुने इसीलिए भगवान शंकर 5 तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्रि) का त्याग करके इन पर्वतमालाओं में पहुंच गए और अमरनाथ गुफा में भगवती पार्वतीजी को अमरकथा सुनाने लगे। जो आज भी गुप्त है उस अमरकथा या अमरत्व के ज्ञान का सही सही बखान काही नही मिलता है। 

अमरनाथ कथा : 

अमरनाथ गुफा की ओर जाते हुए वे सर्वप्रथम पहलगाम पहुंचे, जहां उन्होंने अपने नंदी (बैल) का त्याग किया। तत्पश्चात चंदनवाड़ी में उन्होंने अपनी जटा (केशों) से चंद्रमा को मुक्त किया। शेषनाग नामक झील पर पहुंचकर उन्होंने अपने गले से सर्पों को भी उतार दिया। प्रिय पुत्र श्री गणेशजी को भी उन्होंने महागुनस पर्वत पर छोड़ देने का निश्चय किया। फिर पंचतरणी पहुंचकर शिवजी ने पांचों तत्वों का त्याग किया। सबकुछ छोड़कर अंत में भगवान शिव ने इस अमरनाथ गुफा में प्रवेश किया और पार्वतीजी को अमरकथा सुनाने लगे। जब शिवजी कथा सुना रहे थे तब एक घटना घटी...

शुकदेव

जब भगवान शंकर इस अमृतज्ञान को भगवती पार्वती को सुना रहे थे तो वहां एक शुक (हरा कठफोड़वा या हरी कंठी वाला तोता) का बच्चा भी यह ज्ञान सुन रहा था। पार्वती कथा सुनने के बीच-बीच में हुंकारा भरती थी। पार्वतीजी को कथा सुनते-सुनते नींद आ गई और उनकी जगह पर वहां बैठे एक शुक ने हुंकारी भरना प्रारंभ कर दिया।

जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब वे शुक को मारने के लिए दौड़े और उसके पीछे अपना त्रिशूल छोड़ा। शुक जान बचाने के लिए तीनों लोकों में भागता रहा।भागते-भागते वह व्यासजी के आश्रम में आया और सूक्ष्म रूप बनाकर उनकी पत्नी वटिका के मुख में घुस गया। वह उनके गर्भ में रह गया। ऐसा कहा जाता है कि ये 12 वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले और व्यासजी के पुत्र कहलाए।

गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने माता-पिता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिए जंगल की राह ली। यही जगत में शुकदेव मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए। जिन्होने राजा परीक्षित को श्रीमत भागवत महापुराण की कथा सुनायी थी जो मोक्षदायीनी मानी जाती है।

पवित्र युगल कबूतर : 

श्री अमरनाथ की यात्रा के साथ ही कबूतरों की कथा भी जुड़ी हुई है। इस कथा के अनुसार एक समय महादेव संध्या के समय नृत्य कर रहे थे कि भगवान शिव के गण आपस में ईर्ष्या के कारण ‘कुरु-कुरु’ शब्द करने लगे। महादेव ने उनको श्राप दे दिया कि तुम दीर्घकाल तक यह शब्द ‘कुरु-कुरु’ करते रहो। तदुपरांत वे रुद्ररूपी गण उसी समय कबूतर हो गए और वहीं उनका स्थायी निवास हो गया। इन दोनो कबूतर रूपी गणोंने भी यह अमरकथा सुनी ये दोनों कबूतर भी अमर हो गए...

माना जाता है ‍कि यात्रा के दौरान पावन अमरनाथ गुफा में इन्हीं दोनों कबूतरों के भी दर्शन होते हैं। यह आश्चर्य ही है कि जहां ऑक्सीजन की मात्रा नहीं के बराबर है और जहां दूर-दूर तक खाने-पीने का कोई साधन नहीं है, वहां ये कबूतर किस तरह रहते होंगे? यहां कबूतरों के दर्शन करना शुभ  माना जाता है।

गुफा में हिमलिंग स्थापित होने की कथा...

पार्वतीजी भगवान सदाशिव से कहती हैं- 'प्रभो! मैं अमरेश महादेव की कथा सुनना चाहती हूं। मैं यह भी जानना चाहती हूं कि महादेव गुफा में स्थित होकर अमरेश क्यों और कैसे कहलाए?'

सदाशिव भोलेनाथ बोले, ‘देवी! आदिकाल में ब्रह्मा, प्रकृति, स्थावर (पर्वतादि) जंगल, (मनुष्य) संसार की उत्पत्ति हुई। इस क्रमानुसार देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, राक्षस, सर्प, यक्ष, भूतगण, कूष्मांड, भैरव, गीदड़, दानव आदि की उत्पत्ति हुई। इस तरह नए प्रकार के भूतों की सृष्टि हुई, परंतु इंद्रादि देवता सहित सभी मृत्यु के वश में थे।’

इसके बाद भगवान भोलेनाथ ने कहा कि मृत्यु से भयभीत देवता उनके पास आए। सभी देवताओं ने उनकी स्तुति की और कहा कि 'हमें मृत्यु बाधा करती है। आप कोई ऐसा उपाय बतलाएं जिससे मृत्यु हमें बाधा न करे।'

‘मैं आप लोगों की मृत्यु के भय से रक्षा करूंगा’, कहते हुए सदाशिव ने अपने सिर पर से चंद्रमा की कला को उतारकर निचोड़ा और देवगणों से बोले, ‘यह आप लोगों के मृत्युरोग की औषधि है।'

उस चंद्रकला के निचोडऩे से पवित्र अमृत की धारा बह निकली और वही धारा बाद में अमरावती नदी के नाम से विख्यात हुई। चंद्रकला को निचोड़ते समय भगवान सदाशिव के शरीर पर जो अमृत बिंदु गिरे वे सूख गए और पृथ्वी पर गिर पड़े।

पावन गुफा में जो भस्म है, वे इसी अमृत बिंदु के कण हैं, जो पृथ्वी पर गिरे थे। सदाशिव भगवान देवताओं पर प्रेम न्योछावर करते समय स्वयं द्रवीभूत हो गए। देवगण सदाशिव को जलस्वरूप देखकर उनकी स्तुति में लीन हो गए और बारंबार नमस्कार करने लगे।

भोलेनाथ ने देवताओं से कहा, ‘हे देवताओं! तुमने मेरा बर्फ का लिंग शरीर इस गुफा में देखा है। इस कारण मेरी कृपा से आप लोगों को मृत्यु का भय नहीं रहेगा। अब तुम यहीं पर अमर होकर शिव रूप को प्राप्त हो जाओ। आज से मेरा यह अनादि लिंग शरीर तीनों लोकों में अमरेश के नाम से विख्यात होगा।'

देवताओं को ऐसा वर देकर सदाशिव उस दिन से लीन होकर गुफा में रहने लगे। भगवान सदाशिव ने अमृत रूप सोमकला को धारण कर देवताओं की मृत्यु का नाश किया, तभी से उनका नाम अमरेश्वर प्रसिद्ध हुआ।

बाबा अमरनाथ के दर्शन का महत्व 

बाबा अमरनाथ के दर्शन से जीवन होता है सफल शास्त्रों के अनुसार इसी गुफा में भगवान शिव ने माता पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था. माता पार्वती के साथ ही इस रहस्य को शुक (तोता) और दो कबूतरों ने भी सुन लिया था. यह शुक बाद में शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गए, जबकि गुफा में आज भी कई श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई देता है जिन्हें अमर पक्षी माना जाता है. पुराणों के अनुसार काशी में दर्शन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हजार गुना पुण्य देने वाले श्री बाबा अमरनाथ का दर्शन है.

पार्वती पीठ भी यहीं स्थित है
श्री अमरनाथ गुफा में स्थित पार्वती पीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है. मान्यता है कि यहां भगवती सती का कंठ भाग गिरा था. यहां माता के अंग तथा अंगभूषण की पूजा होती है। अमरनाथ गुफा के अंदर बनने वाला हिम शिवलिंग पक्की बर्फ का बनता है जबकि गुफा के बाहर मीलों तक सर्वत्र कच्ची बर्फ ही देखने को मिलती है. मान्यता यह भी है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है. मान्‍यताओं के अनुसार रक्षा बंधन की पूर्णिमा के दिन भगवान शंकर स्वयं श्री अमरनाथ गुफा में पधारते हैं. रक्षा बंधन की पूर्णिमा के दिन ही छड़ी मुबारक भी गुफा में बने हिम शिवलिंग के पास स्थापित कर दी जाती है. ऐसी मान्यता है कि अमरनाथ गुफा के अंदर हिम शिवलिंग के दर्शन मात्र से ही मनुष्य को 23 पवित्र तीर्थों के पुण्य के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है.

✍️ *लेखीका : डाॅ रेश्मा पाटील* 

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🗓️ *तारीख : 21 / 7 / 2022* 

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हर हर महादेव

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प्रा.डाॅ. रेश्मा आझाद पाटील M.A.P.hd in Marathi

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