सुलगते सवाल

 सुलगते सवाल  


आज भारत का वातावरण हर दृष्टि से भयावह एवं विस्फोटक बन चुका है। कहाँ, कब, क्या हो जाए, कोई कुछ नहीं कह सकता। ऐसे समय में सभी को विशेष सावधान रहना आवश्यक होता है। सभी सम्प्रदायों को यह सोचकर सतर्क रहना चाहिए कि जब इसी धरती पर रहना है तो किसी भी प्रकार से उन तत्त्वों के हाथ का खिलौना न बनें, जो देश की शान्ति भंग कर अपने निहित स्वार्थ को पूरा करना चाहते हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश सर्वोपरि है। यदि देश है तो हम और हमारे सम्प्रदाय होंगे अन्यथा कुछ नहीं होगा।

इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सुख-शांति से जीवन व्यतीत करने का अधिकार है। उसे अपनी इच्छा अनुसार भगवान की भक्ति करने का भी अधिकार प्राप्त है।

परन्तु प्रत्येक मानव को सर्वप्रथम यह विचार करना चाहिए कि उसकी धार्मिक गतिविधियाँ अथवा साम्प्रदायिक विचारधाराएँ समाज के अन्य सम्प्रदायों को ठेस तो नहीं पहुंचा रहीं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है और प्रेम एवं मित्रता से बड़ा सुख नहीं है। साम्प्रदायिक सद्भाव से ही समाज उन्नति कर सकता है, जो कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिए हितकर है। अतः समाज की सुरक्षा के लिए प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह साम्प्रदायिकता के चंगुल से स्वयं को बचाए रखे।

पर सदियोंसे  साम्प्रदायिकता के कारण वैमनस्य उत्पन्न करने में राजनैतिक एवं धार्मिक नेताओं ने निष्ठुरता से मानवता को कुचला है। सत्य यह है कि आम नागरिक के लिए साम्प्रदायिक विवाद से अधिक महत्त्वपूर्ण अपने परिवार का भरण-पोषण होता है। आम नागरिक दिनभर परिश्रम करता है और कठिनाई से अपना जीवनयापन कर पाता है। किसी विवाद में पड़ने का न तो उसके पास समय होता है, न ही क्षमता। परन्तु राजनैतिक एवं धार्मिक नेता तथा असामाजिक तत्त्व निजी स्वार्थों के लिए आम नागरिक को साम्प्रदायिकता की चक्की में पिसने पर विवश कर देते हैं।

भारत में मंहगाई बेतहाशा बढ़ रही है। अखबार, टी.व्ही वगैरह भी कभी-कभार इस पर बात कर लेते हैं। वैसे उनका पूरा ध्यान पेट्रोलियम पदार्थों यानी पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के आसपास ही लगा रहता है। चलते-चलते कभी-कभार गेहूं, चावल, आटा, तेल, साबुन, मसालों की भी चर्चा कर लेते हैं। हमने अपने प्रतिरोध के सारे उपकरण अन्य लोगों को सौंप दिए हैं। हमारा सबकुछ कहीं और गिरवी हो गया है।

गौर करिए आज, बढ़ती महंगाई और बढ़ती सांप्रदायिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। महंगाई पर रोक को लेकर सरकार का बेबस हो जाना, अप्रत्यक्ष रूप से सांप्रदायिकता में आए उछाल की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है | मुख्य समस्याएं हैं, महंगाई व बेरोजगारी, परंतु इसे धार्मिक उन्माद से दबाने का कमोवेश सफल रास्ता निकाला जा रहा है। क्या सरकार हमें यह समझा सकती है कि जब देश में गेहूँ और चावल का आधिक्य (अतिरिक्त) है तो फिर इन दोनों खाद्यान्नों और आटे के भाव क्रमशः 40 व 30 प्रतिशत क्यों बढ़े? जिस वस्तु की कमी हो या आयात होता हो, उसके भाव बढ़ना तो एक हद तक न्यायोचित (हमेशा नहीं) ठहराया जा सकता है, लेकिन जो वस्तु देश में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो उसके दाम क्यों बढ़े? क्या निर्यात के लिए देश के नागरिकों को तड़पाया जाना उचित है?

खाने के विभिन्न तेलों के दाम 30 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक बढ़ गए। भवन निर्माण आदि में काम आने वाले सरिये का दाम कमोवेश दोगुना हो गया। आज वह 82 हजार रु. टन यानी 82 रु. किलो है। सीमेंट व रेती-गिट्टी के भाव आसमान छू रहे हैं। अनेक बड़े शहरों में बिल्डरों ने भवन निर्माण को अस्थाई तौर पर रोक दिया है। परंतु मनुष्य के पेट का क्या करें, उसे तो दिन में दो बार (कम से कम) भूख लगती ही है।

तो बात यहीं नहीं रुकती। सरकार ने पिछले 12 दिनों में पेट्रोलियम पदार्थो के भाव में 10 बार वृद्धि की। इससे यात्री व मालभाड़ा महंगा हुआ और दाम बढ़ने लगे। पर सरकार यहीं नहीं रुकी। उसने तो तय कर लिया है कि आम या खास कोई भी हो, उसका सुख-चैन छीन ही लेगी। सरकार ने टोल टेक्स में बढ़ोत्तरी को भी मंजूरी दे दी। चाहती तो इसे टाल सकती थी। सरकार ने जीवनरक्षक दवाइयों के मूल्यों में वृद्धि की अनुमति भी दे दी।

दूसरी ओर सांप्रदायिकता की जैसे सुनामी ही आती जा रही है। कर्नाटक का हिजाब विवाद, हिन्दू देवस्थानों पर मुस्लिम दुकानदारों के बहिष्कार से होता हुआ हलाल (मांसाहारी भोजन) तक पहुच गया। कर्नाटक से उठी सांप्रदायिकता की आंच की तपन इंदौर जैसे शहरों में पहुंच गई है और यहां भी हिन्दू धार्मिक स्थलों में छोटे-बड़े मुस्लिम दुकानदारों के व्यवसाय को रोकने की बात खुल कर सामने आने लगी है।

अभी जो सत्ता में हैं वे मुद्दों को किसी प्रतीक से दबा देते हैं। उनकी चालाकी अंततः देश के लिए घातक ही सिद्ध होगी। परिवर्तन का कोई नैसर्गिक मार्ग सुझाई नहीं दे रहा है। राजनीति में दार्शनिकता का सर्वथा अभाव नजर आ रहा है। इसलिए तात्कालिकता हावी है और वह किसी भी तरह के संघर्ष की बुनियाद को मजबूत बनने ही नहीं दे रही। जॉन एलिया की पंक्तियां इसीलिए आज बेहद महत्वपूर्ण है। हम अब बिना शरीर छोड़े ही किसी और के कंधों पर सवार हो गये हैं और अब यह उन कंधों पर निर्भर है कि वह हमें कहा ले जाएं। आम नागरिक बेहद यंत्रवत व्यवहार में डूब सा गया है। उन्हें हर ओर से लालच और प्रलोभन दिया जा रहा है और हमारा स्नायुतंत्र उसी के वशीभूत हो गया है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगौर इस प्रवत्ति को 100 साल से भी पहले तकरीबन सन् 1917 में पहचान गए थे। वे लिखते है, ‘‘जो प्रलोभन शक्तिशाली के लिए घातक है, वह कमजोर के लिए तो और भी ज्यादा घातक होगा। भारतीय जीवन के लिए मैं कभी इसका स्वागत नहीं करुंगा, भले ही यह अमीरों के ईश्वर द्वारा क्यों न भेजा जाए, मेरी तो प्रार्थना है कि हमारा जीवन बाहर से सादा तथा भीतर से समृद्ध हो। हमारी सभ्यता सामाजिक सहयोग के आधार पर दृढ़ता से टिकी रहे, न कि आर्थिक शोषण व संघर्ष के आधार पर। जब हमारे जीवन तत्व पर आर्थिक अजगरों के दांत गड़े हों, तब यह कैसे संभव होगा।’’

इस पूरे उद्धहरण को यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आकें तो साफ नजर आता है कि छोटे-छोटे प्रलोभनों से बड़े-बड़े स्वार्थ साधे जा रहे हैं। अमीरों के ईश्वर कौन हैं ? ये वे जानते थे, समझते थे और ये अमीरों के ईश्वर वर्तमान समय में हमारे सामने चट्टान बने खड़े हैं। सामाजिक सहयोग को छिन्न भिन्न किया जा रहा है। भारत जातीय संघर्ष को समाप्त नहीं कर पाया था कि सांप्रदायिकता का बवंडर नए सिरे से सामने आ गया | महंगाई जैसी हर वक्त प्रभावित करने वाली त्रासदी भी अब हमें विचलित नहीं कर पाती है और हम भूखे पेट डकार ले रहे हैं। इस अन्यायपूर्ण स्थिति से कैसे निपटा जाए? राजनीतिज्ञों ने घनघोर असुरक्षा का वातावरण तैयार कर दिया है। ऐसे में कोई भी अपने घरों से बाहर आकर बात करने को कतई तैयार ही नहीं है। कहीं से कोई आवाज आती सुनाई नहीं देती। इन पंक्तियों पर गौर करिए,

कोई नहीं खामोश, कोई पुकारता नहीं

शहर में एक शोर है और कोई सदा (आवाज) नहीं।

रोजमर्रा की अनिवार्यता वाली वस्तुओं के दामों में एक-डेढ़ महीनों में 40 प्रतिशत की वृद्धि से पूरे देश में खलबली तो मची हुई है, लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही है। विरोध में जो स्वर उठ भी रहे हैं, वे अपनी आवाज को गूंज में परिवर्तित कर पाने के इच्छुक नहीं दिखाई दे रहे हैं। एक दिन या एक सप्ताह का विरोध प्रदर्शन जड़ हो चुकी आवाज को पुनः स्पंदित नहीं कर सकता। आँखे खोलेंगे तो पाएंगे कि एक विशिष्ट धर्म के लोगों के आर्थिक बहिष्कार का आह्वान किया जा रहा है और दूसरी ओर आकंठ कर्ज में डूबी राज्य सरकार एक अन्य विशिष्ट धर्म के स्थलों को विकसित करने हेतु करीब 1,100 करोड़ रु. का बजट में प्रावधान कर रही है। क्या ये सही है ? 

मुख्य मुद्दों से ध्यान बंटाने की यह नई कला वास्तव में एक ऐसे भविष्य का निर्माण कर रही है जिसमें कि सारा वातावरण दमघोंटू होता चला जाएगा। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही महंगाई व बेरोजगारी से त्रस्त हैं। किसी एक के अधिकार को छीनने से दूसरा शक्तिशाली नहीं बनता। अंततः दोनों ही कमजोर होते चले जाते हैं। महंगाई को सामान्य चर्चा से बाहर कर देने से महंगाई कहीं बाहर नहीं चली जाएगी। खाली पेट तो बजेंगे ही। थोड़े दिन तक गगनभेदी नारे इन खाली पेटों की आवाज को दबा लेंगे, लेकिन अंततः तो यह आवाज सबसे ऊपर निकल ही जाएगी क्योंकि भूख मानव सभ्यता की सबसे बड़ी त्रासदी और यंत्रणा दोनों ही है। याद रखिए विगत आठ वर्षों में सरकारी अनुदान से मिले खाद्यान्न पर निर्भर रहने वालों की संख्या 20 करोड़ से बढ़कर 80 करोड़ तक पहुंच गई है। यदि स्थितियों को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह संख्या कहां पर रुकेगी, यह अकल्पनीय है।

यह अजीब सी बात है कि भारतीय समाज आगे बढ़ते-बढ़ते यकायक बिना पीछे मुड़े उल्टा चलने लगा। उसे लगने लगा है कि वह जो कुछ भी पाना चाहता है, वह तो सामने है, लेकिन उसे आगे चलकर हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए वह पीछे की ओर चल पड़ा है और समझ ही नहीं पा रहा है कि बिना पीछे देखे चलने से वह खाई में गिर सकता है। मगर उस पर एक नशा सा चढ़ गया है। सांप्रदायिकता का यह नशा उसे लगातार रोमांचित कर रहा है। सबकुछ जैसे हमारी - आपकी अस्मिता पर आकर अटक गया हो। यह अस्मिता भी परिभाषित नहीं है। इसलिए कभी उसकी खोज किसी धर्मस्थल में तो कभी किसी फिल्म में तलाशी जा रही है। वहीं पूरी तरह से परिभाषित महंगाई, भूख, गरीबी, बीमारी अमूर्त व्याख्या का शिकार हो गई हैं। दुःखद तो यह है कि सार्वजनिक तौर पर कहा जा रहा है कि जुमलेबाजी से चुनाव जीते जा सकते हैं और यह स्वीकारा जा रहा है कि हमने जो कहा था वह जुमलेबाजी ही थी।

बढ़ती मँहगाई और इसके परिणामस्वरूप बढ़ती गरीबी, भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद दर्दनाक व खतरनाक है। महंगाई की व्यापकता को कम करने के लिए सांप्रदायिकता को बढ़ने देना तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है।

अतीत में भारत के राजनीतिज्ञ कतिपय ऐसी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित कर चुके हैं, जिन्होंने उन्हें ही शिकार बनाया है। इसलिए आवश्यक है कि महंगाई को महंगाई ही रहने दें और उसे आर्थिक ताने-बाने से काबू में लाएं। बापू ने समझाया है, ‘‘कोई संस्कृति जिंदा नहीं रह सकती, अगर वह दूसरों का बहिष्कार करने की कोशिश करती है। इस समय भारत में शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज मौजूद नहीं है। आर्य लोग भारत के ही रहने वाले थे या जबरन यहां आ घुसे थे, और मुस्लीम आक्रांतावोंने मध्ययुग मे क्याक्या किया और क्याक्या नही किया इसमें मुझे बहुत दिलचस्पी नहीं है। मुझे जिस बात में दिलचस्पी है वह यह है कि मेरे पूर्वज एकदूसरे के साथ आजादी के साथ मिल गए और मौजूदा पीढ़ी वाले हम लोग उस मिलावट की ही उपज हैं।’’ तो हम सबको समझना होगा कि महंगाई क्यों कम नहीं हो रही और सांप्रदायिकता क्यों फैल रही है।

व्यक्ति हो या सम्प्रदाय सभी की महत्त्वाकाँक्षाएँ भी बढ़ चुकी हैं। कुछ निहित स्वार्थी लोग थोथी और हीन सामुदायिक मनोवृत्तियों को हवा देते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में साम्प्रदायिक सदभाव बने रहना आज असम्भव-सा प्रतीत हो रहा है।

इस सांप्रदायिकता के चलते हिन्दू, मुसलमान तथा सिख धर्म के अनुयायियों में भाईचारा समाप्त हो रहा है। देश की एकता, अखंडता नष्ट हो रही है। परस्पर अविश्वास का वातावरण पैदा हो रहा है। देश की सुख-शांति छिन रही है। सारा वातावरण हिंसक घटनाओं से दूषित हो रहा है।

सांप्रदायिकता से छुटकारा पाने के लिए सरकार के साथ-साथ नागरिकों का भी कर्तव्य है कि वह इसके खिलाफ विशेष रूप से सजग रहे। पर भारत मे आज राजनीतिक दल और सरकार भी वोटों की राजनीति के चलते सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते नजर आरही हैं। ऐसे लोग जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और भाषा के नाम पर राष्ट्रीय निष्ठा को अंगूठा दिखा रहे हैं। धर्म निरपेक्ष गणतंत्र में राजनीतिज्ञों की यह नीति देश के लिए घातक है।

वैसे तो भारत देश धर्मनिरपेक्ष है। यहां सरकार का कोई धर्म नहीं है। सभी धर्म स्वतंत्र हैं। हर नागरिक को अपनी आस्थानुसार अपना धर्म मानने की स्वतंत्रता है। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक सांप्रदायिकता की आग में लाखों लोग भस्म हो चुके हैं। करोड़ों की संपत्ति नष्ट हुई है। लाखों बच्चे अनाथ हो गए हैं तथा लाखों औरतें विधवा हो गई हैं। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि के झगड़े में इस देश को सांप्रदायिक शक्तियां तहस-नहस कर रही हैं।

धार्मिक कट्टरता के साथ राजनीति जुड़ गई है। धर्म के अंधे भक्त तथा चालाक राजनीतिज्ञ इस सांप्रदायिकता से लाभ उठाते हैं। साधारण, अज्ञानी तथा निरीह, निर्दोष लोग हिंसा, आगजनी, लूट तथा विध्वंस के शिकार बनते हैं। आए दिन दंगे-फसाद, मारकाट तथा भयंकर विनाश की खबरें छपती हैं। ये धर्मात्मा तथा समाज के अपराधी वर्ग मिलकर देश में नए विध्वंस की तैयारी छिपे रूप से तथा खूले रूप से करते रहते हैं। यह सांप्रदायिकता हमारे देश का अभिशाप है। 

सांप्रदायिकता राष्ट्रीयता की भयंकर विरोधी होती है। क्या किसी सांप्रदायिक भावना से प्रेरित या संचालित व्यक्ति राष्ट्रीयता का समर्थक हो सकता है ? कभी नही राष्ट्रीयता का समर्थक कभी भी सांप्रदायिक नहीं हो सकता।

केवल अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ समझ उसके हितों का विशेष ध्यान रखना और दूसरे संप्रदाय को हीन समझ उससे द्वेष रखना ही सांप्रदायिकता कहलाता है। भारत में सांप्रदायिकता का इतिहास बहुत पुराना है। इसके पीछे मुख्य वजह देश में कई संप्रदाय के लोगों का रहना है। भारत में अनेक प्रकार के देवी-देवताओं को मान्यता प्राप्त होना, अनेक तीर्थ और पूजास्थल होना, तरह-तरह के मन्दिर और स्थान बनना, यहाँ तक कि वृक्षों, पर्वतों और नदियों तक को देवत्व का सा महत्त्व प्रदान किया जाना साम्प्रदायिक विभिन्नता एवं विविधता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वैष्णव, शैव, शाक्त, वल्लभ: राधावल्लभ आदि मध्यकालीन और प्राचीनतम कुछ प्रमुख सम्प्रदाय माने जाते हैं। आज भी भारत में तरह-तरह के सम्प्रदाय सक्रिय हैं और वे नित्य नए-नए स्वरूप बदलते रहते हैं। सभी के अपने-अपने अनन्त अनुयायी और सेवक-भक्त हैं। इतने सम्प्रदायों का होना कोई बुरी बात नहीं यदि वे किसी का कुछ बिगाड़ नहीं रहे हों।

परन्तु कोई भी सम्प्रदाय या किसी तरह की साम्प्रदायिकता तब बुरी बन जाया करती है जब कि कोई सम्प्रदाय या व्यक्ति दूसरे सम्प्रदाय या व्यक्ति को भला-बुरा कहने और उपासना-पद्धति में गुण-दोष निकालने लगता है। ऐसी स्थिति में बहुधा भिन्न सम्प्रदाय के लोगों में सिर-फुटौवल हो जाया करती है। प्राचीन काल में भारत में बौद्धों का हिन्दुओंसे, वैष्णव तथा शैवों व शाक्तों के मध्य वाद-विवाद तथा हिंसा होती रहती थी। विभिन्न संप्रदायों के लोग अपने धर्म व आचार-विचार को श्रेष्ठ समझ दूसरे संप्रदाय के लोगों को हेय दृष्टि से देखते रहे हैं। इधर भारत में सांप्रदायिकता की एक नई व्याख्या पनपी है। धीरे-धीरे धर्म संप्रदाय का रूप ले रहा है।हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अब धर्म नहीं संप्रदाय बन गया है।

और इन मे टकराव पैदा करके अपनी अपनी राजनैतिक रोटीया पकायी जा रही है। ऐसी स्थिति में साम्प्रदायिक सद्भाव बना रह पाना वास्तव में कठिन कार्य है। आज साम्प्रदायिकता का भाव वास्तव में अपनी मूल अवधारणा से हट कर एक ऐसी विष की बेल बन चुका है जिस पर केवल विषफल ही उगा करता है। आज के मानव में यों भी सहनशीलता का अभाव-सा हो गया है। और इसका फायदा कुछ धूर्त लोग उठा रहे है।

देश के हालात और महंगाई से जुजती जनता से कीसी को कोई मतलब नही है एसे मे जनता को ही धर्म , संस्कृति और संप्रदाय का सच समझना होगा और किसी के बहकावे मे आये बिना भाईचारा और शांती बनाये रखनी होगी और अपने मूलभूत प्रश्नों की और ध्यान देने को राजनेतांवोंको मजबूर करना होगा अपने सौदार्य और शांतिपूर्ण व्यवहार से ये दिखाना होगा की भारत की जनता अब भावनात्मक रूप से परिपक्व बन गयी है और उनके झांसे मे आनेवाली नही है । अब सब को ये समझना होगा की सभी धर्म संप्रदाय, मत, मजहब मानव मात्र को ईश्वर-आस्था, समस्त प्राणियों के प्रति स्नेह-भाव, उपकार, स्वार्थ-त्याग तथा आपसी प्रेम की सीख देते हैं। किसी भी मजहब में घृणा, हिंसा, बैर, द्वेष आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। सभी मनुष्य उसी परमपिता परमात्मा की संतान है और इसी कारण धर्म सम्प्रदाय से परे मानवता रूपी सूत्र में बंधे हुए हैं, हर धर्म के पूजा-उपासना करने के तरीके भिन्न हो सकते हैं, हम अपने आराध्य देव को अलग-अलग नामों जैसे-ईश्वर, अल्लाह, गुरुदेव, गॉड जैसे नामों से पुकार सकते हैं, लेकिन ये सभी उस परम परमात्मा तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। सबका सार एक है, सबकी मंजिल एक है। धर्म तोड़ना नहीं जोड़ना सिखाता है। संस्कृत में एक कथन भी है- “धर्म: यो बाधते धर्म न सधर्मः कुधर्म तत्।” अर्थात् जो धर्म दूसरे धर्म को बाधित करता है, वह धर्म नहीं अधर्म है, यही बात धर्म समभाव शायर इकबाल ने भी कही थी- “मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। हिंदी है हम वतन है, हिन्दोस्ताँ हमारा॥” अर्थात् हम सब भारतीय हैं और भारतीयता ही हमारा धर्म है। साम्प्रदायिकता फैलाकर इसे नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए।


✍️ *लेखीका : डाॅ रेश्मा पाटील* 

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🗓️ *तारीख : 9/5/2022* 

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प्रा.डाॅ. रेश्मा आझाद पाटील M.A.P.hd in Marathi

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