इस्लाम : आरोप और यथार्थ

इस्लाम : आरोप और यथार्थ

 



आज कल धर्म के नाम पे बहोत बवाल हो रहा है खासकर इस्लाम धर्म और उसके कही शब्दोंकी व्याख्या को लेकर जिसके जो मन मे आता है वो वही बोल रहा है जिससे बवाल अधिकाधिक बढ ही रहा है इस बवाल को खत्म करना है तो इस्लाम धर्म और उसके शब्दोंकी सही सही व्याख्या जानना सब के लिये बहोत जरूरी है । वैसे ही कुरान की कुछ आयतों का अर्थ भी सही से जानना जरूरी है वरना अर्थ का जो अनर्थ हो रहा है वो कैसे रुकेंगा तो आयीये जाने इस्लाम धर्म के सही सही मायने क्या है।   

'इस्लाम' शब्द का अर्थ क्या है ?

इस्लाम लब्ज-सल्म लब्ज से बना है. सल्म अरबी शब्द है इस लब्ज का अर्थ है खुदा को अर्पित अर्थात इस्लाम शब्द ही का अर्थ है, जो इन्सान खुदा को अर्पित हो जाये,सर्वसमर्पण कर दे वह इस्लाम धर्म को मानने वाला है.

भगवान दो नहीं हुआ करते, खुदा अनेक नहीं होता,वो एक ही है और जितने इन्सान उसने बनाये है वे किसी उद्देश्य से बनाये है -

मा ख़लक तल इन्स व जिन्न इल्लाले आबदून .

कुरान में कहा गया है कि इंसान को इसलिये बनाया है कि वो खुदा को अर्पित हो, उसी क़ी इबादत करे और सही सही इबादत करे, खुदा से ही जिसकी मुहबत हो. इन्स लब्ज है अरबी में, उससे इन्सान बना. इसका मतलब ही यह होता है कि जो खुदा कि इबादत करे उनका नाम इन्सान.

इन्सान + सल्म =  इस्लाम यानी खुदा को समर्पित आदमी 

यानी 'इस्लाम' शब्द का तात्पर्य इतना ही है 

इस्लाम का अर्थ है समर्पण। या समर्पित आदमी धार्मिक संदर्भ में ईश्वर (अल्लाह) की इच्छाओं के आगे समर्पण या ईश्वर (अल्लाह) की इच्छाओं के आगे समर्पण करनेवाला आदमी

अब खुद विचार करो  की ईश्वर (अल्लाह) को समर्पित आदमी इन्सानियत का भला करेगा या दुसरे के गले काटता फिरेंगा वो भी खुदा के नाम पे नही ना तो फिर एसा किसलीये हो रहा है ? इसका उत्तर है की इस्लामी धर्म ग्रंथ कुरान मे लिखी कुछ आयतों का शब्दों का गलत मतलब निकाला गया है और ये मुस्लीम और हिन्दू दोनोंने मान लिया है जब की उनका अर्थ वैसा नही जैसा बतायाजारहा है अब इसको विस्तार से जानते है ।   

"ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदूं रसूल अल्लाह" का शाब्दिक अर्थ क्या है ?

नहीं कोई पूज्य सिवाय एकेश्वर के (ईश्वर एक है);

मुहम्मद प्रेषित हैं एकेश्वर के।

ला = नहीं

इलाह् = पूज्य, ईश्वर, God (इलाहा = कोई ईश्वर, a God)

इल्ला = सिवाय, except

अल्लाह = अल् (The) + इलाह (God) = The God, एकेश्वर

(अरबी भाषा में वाक्य के शब्दों को जोड़ कर कहा जाता है; अत:

इल्ला + अल्लाह = इल्लल्लाह् = सिवाय एकेश्वर के)

रसूल = प्रेषित (जिसे कोई संदेश पंहुचाने के लिए भेजा गया हो, संदेशवाहक), Messenger

रसूलुल्लाह् = रसूल + अल्लाह = एकेश्वर का संदेशवाहक (Messenger of God)

(मुहम्मद + रसूलुल्लाह् = मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह्)

ला-इलाहा इल्लल्लाह् = नहीं कोई पूज्य सिवाय एकेश्वर के

मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह् = मुहम्मद प्रेषित हैं एकेश्वर के

( वेद भी "एको हम द्वितीयो ना सी " यानी मै एक हू और मेरे जैसा कोई दुसरा नही है यही प्रमुख वाक्य है ला इलाह इल अल्लाह और एको हम द्वितीयो ना सी  इन दोनो वाक्योंका मतलब तो लगभग एक जैसा ही सिर्फ भाषाये अलग अलग है । )

'मुहम्मद' शब्द का अर्थ क्या हैं?

'मुहम्मद ' अरबी भाषा का शब्द है जो मूल शब्द “हम्द” से निकला है ।

हम्द शब्द का अर्थ होता है : तारीफ या प्रशंसा ।

मुहम्मद शब्द का अर्थ होता है 'तारीफ के काबिल ' या 'प्रशंसनीय '

मुहम्मद शब्द इस्लाम धर्म के नबी का नाम था और मुसलमानों में इस नाम के प्रति श्रद्धा इतनी है कि कहा जाता है कि विश्व में सबसे अधिक प्रचलित नाम भी यही है ।

"अल्लाह-हू-अकबर" का सही मतलब क्या है?

तकबीर (تَكْبِير), वाक्यांश अल्लाहु अकबर (ٱللَّٰهُ أَكْبَرُ)  (अरबी, उर्दू, फ़ारसी : ٱللَّٰهُ أَكْبَرُ)  अकबर अल्लाह का अरबी नाम है, जिसका हिन्दी अनुवाद आम तौर पर "ईश्वर सबसे महान है", या "ईश्वर महान है" होता है। यह एक आम इस्लामी अरबी अभिव्यक्ति है, जिसे विश्वास की एक अनौपचारिक अभिव्यक्ति या फिर औपचारिक घोषणा दोनो में समान रूप में प्रयोग किया जाता है। इस्लामी धार्मिक दृष्टिकोण में यह एक नारा भी है। जिसका अर्थ अल्लाह बहुत बडा है। नारे के रूप में इसे "नारा ए तकबीर" भी कहा जाता है।

इस्लाम में "नारा ए तकबीर" का क्या मतलब होता है?

नारा ए तकबीर का अर्थ है "उदघोष है समय का" या अंग्रेजी में कहे कि कॉल ऑफ टाइम।

इसके बाद आता है अल्लाह हु अकबर।

जिसके मायने है कि अल्लह महान है।

इस्लाम में ये ग़ज़वा-ऐ-हिन्द का क्या मतलब है?

सबसे पहले तो यह बात समझलें की ग़ज़वा उस युद्ध/जंग को कहते हैं जिसमे ईश्दूत/पैग़ंबर मुहम्मद खुद शामिल हों। उसके अलावा और किसी युद्ध को ग़ज़वा नहीं कहते। आखरी ग़ज़वा या वह जंग जिसमें हज़रत मुहम्मद (उन पर सलामती हो) खुद शामिल हुए वह थी ग़ज़वा-ऐ-तबूक जो साल ९ हिजरी में हुई और उसके कुछ साल बाद आप इस पृथ्वी से चले गए।

तो अब सोचने वाली बात यह है की ग़ज़वा-ऐ-हिन्द कब होगा और उसमे वह खुद कैसे शामिल होंगे? वह तो इस पृथ्वी से जा चुके हैं। सिर्फ २ ऐसी हदीस मिलती हैं जिन्हें ग़ज़वा-ऐ-हिन्द से जोड़ा जा सकता है। तो मान भी लें की अगर ग़ज़वा-ऐ-हिन्द होना है तो अब उसमे हज़रत मुहम्मद (उन पर सलामती हो) तो जिस्मानी तौर पर शामिल हो नहीं सकते क्योंकि वह इस पृथ्वी से जा चुके हैं तो अगर रूहानी तौर पर शरीक हुए तो यह ग़ज़वा भी कोई तलवार, बन्दूक़ या तोपों से नहीं होगा बल्कि रूहानी या वैचारिक तौर पर ही होगा।

तो असल में ग़ज़वा-ऐ-हिन्द वह होगा जब हिंदुस्तान के सभी लोग उस एक ईश्वर के सच्चे पैगा़म को मान लेंगे और सतयुग आ जायेगा और फिर उसे लेकर पूरी दुनिया में निकल पड़ेंगे। कोई युद्ध करने नहीं बल्कि सच्चाई को दूसरों तक पहुँचाने के लिए। अगर इसे युद्ध का नाम दिया भी जाए तो यह कोई तलवार बन्दूक़ वाला युद्ध नहीं बल्कि एक वैचारिक युद्ध होगा जिसमें सच्चाई की झूठ पर जीत होगी।

यह है असल में ग़ज़वा-ऐ-हिन्द।

इस्लाम के अनुसार काफिर कौन है ?

प्रश्न को थोड़ा सा विस्तार देते हुये प्रश्न के अंतर से उत्त्तर का अंतर भी समझ में आएगा इसलिए प्रश्न यह होना चाहिये था कि "इस्लाम में काफ़िर किसे कहते हैं और मुसलमान किसे काफ़िर कहते हैं "

सबसे पहले में "इस्लाम में काफ़िर किसे कहते हैं " इस संदर्भ में प्रकाश डालता हूँ …

काफ़िर किसे कहते हैं पहले यह जान लें

काफ़िर (کافر, Kaafir ) अरबी भाषा का शब्द है कुरान में यह शब्द कई जगह प्रयोग हुआ है

काफ़िर शब्द का अर्थ है , अस्वीकार करने वाला , छुपाने वाला, अकृतज्ञ, इंकार करने वाला, ज़बरदस्ती करने वाला, अहंकार करने वाला

अब कुरान से इसके कुछ उदाहरण देता हूँ

تِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَهُمْ عَلَىٰ بَعْضٍ ۘ مِّنْهُم مَّن كَلَّمَ اللَّـهُ ۖ وَرَفَعَ بَعْضَهُمْ دَرَجَاتٍ ۚ وَآتَيْنَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنَاتِ وَأَيَّدْنَاهُ بِرُوحِ الْقُدُسِ ۗ وَلَوْ شَاءَ اللَّـهُ مَا اقْتَتَلَ الَّذِينَ مِن بَعْدِهِم مِّن بَعْدِ مَا جَاءَتْهُمُ الْبَيِّنَاتُ وَلَـٰكِنِ اخْتَلَفُوا فَمِنْهُم مَّنْ آمَنَ وَمِنْهُم مَّن كَفَرَ ۚ وَلَوْ شَاءَ اللَّـهُ مَا اقْتَتَلُوا وَلَـٰكِنَّ اللَّـهَ يَفْعَلُ مَا يُرِيدُ ﴿٢٥٣﴾

(1) यह सब संदेष्टा (जो अवतरित किये गए थे) उनमें से कुछ को कुछ पर श्रेष्ठता दी उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनसे ख़ुद परमेश्वर ने स्वयं बात की उनमें से कुछ के दर्जे बुलन्द किये और मरियम के बेटे ईसा को और पवित्रात्मा (जिबरईल) के ज़रिये से उनकी मदद की और अगर परमेश्वर चाहता तो लोग इन (संदेष्टाओं) के बाद हुये वह अपने पास खुले हुए आलौकिक चमत्कार आ चुकने पर आपस में न लड़ मरते मगर उनमें फूट पड़ गई पस उनमें से कुछ तो ईमान लाये और कुछ काफ़िर हो गये और अगर परमेश्वर चाहता तो यह लोग आपस में लड़ते मगर परमेश्वर वही करता है जो चाहता है

सूरः बक्र: 2:253

इस आयत में परमेश्वर ने स्पष्ट कर दिया की ईसा को परमेश्वर ने खुले रूप में आलौकिक चमत्कार दिए जिसके आने के बाद लोगों ने उनका अनुसरण तो किया लेकिन जब थोडा समय बीता तो उनमे आपस में फूट पड़ गई … फूट का कारण इस पृथ्वी पर रहने वाला हर मनुष्य जानता है कि सत्ता के लिए आज तक एक ही धर्म के अनुयायीओं में भी झगड़ा फसाद लगा रहता है इसी और परमेश्वर ने इशारा किया है की जो लड़ने वालों से अलग हो गए वो तो इमान वाले हो गए और बाक़ी आपसी लड़ाई कि वजह से काफ़िर हो गए

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَنفِقُوا مِمَّا رَزَقْنَاكُم مِّن قَبْلِ أَن يَأْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيهِ وَلَا خُلَّةٌ وَلَا شَفَاعَةٌ ۗ وَالْكَافِرُونَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴿٢٥٤﴾

(2) ऐ! ईमानदारों जो कुछ हमने तुमको दिया है उस दिन के आने से पहले (परमेश्वर के पथ पर ) ख़र्च करो जिसमें न तो खरीदारी-बिक्री होगी और न मित्रता और न सिफ़ारिश (ही काम आयेगी) और कुफ़्र करने वाले ही तो जुल्म ढाते हैंI

सूरः बक्र: 2:254

इस आयत में परमेश्वर ने इमानदार अर्थात ईमानवालों को आदेश दिया कि जो भी परमेश्वर ने तुम्हें दिया है उसे परमेश्वर के लिए ही खर्च करना अन्यथा जिस-दिन कर्मों कि पुस्तक खोली जाएगी तब न तो तुम अपने धन से वहां कुछ पुण्य खरीद सकते हो न ही धन के बदले पाप बेच सकते हो और तब न तो कोई मित्रता या सिफारिश तुम्हें बचाएगी और कुफ्र करने वाले ही तो ज़ुल्म ढाते हैं …..

इस आयत में परमेश्वर ने स्पष्ट बता दिया की कुफ्र करने वाला काफ़िर कौन है …. काफ़िर है वो व्यक्ति जो ईश्वर के दिए हुए से उस परमेश्वर के नाम से न तो भूखों को खिलाता है न ही उनकी सहायता करता है तो ऐसा ईमानवाला ईमानदार नहीं बल्कि काफ़िर है क्यूँकी परमेश्वर द्वारा प्रदत्त धन सम्पदा से उसने सहायता नहीं की और उसने अकृतज्ञता दिखाई … अकृतज्ञता दिखाना यानि कुफ्र करना और काफ़िर हो जाना है

إِنَّا أَنزَلْنَا التَّوْرَاةَ فِيهَا هُدًى وَنُورٌ ۚ يَحْكُمُ بِهَا النَّبِيُّونَ الَّذِينَ أَسْلَمُوا لِلَّذِينَ هَادُوا وَالرَّبَّانِيُّونَ وَالْأَحْبَارُ بِمَا اسْتُحْفِظُوا مِن كِتَابِ اللَّـهِ وَكَانُوا عَلَيْهِ شُهَدَاءَ ۚ فَلَا تَخْشَوُا النَّاسَ وَاخْشَوْنِ وَلَا تَشْتَرُوا بِآيَاتِي ثَمَنًا قَلِيلًا ۚ وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ ﴿٤٤﴾

(3) निःसंदेह हम ने तौरेत अवतरित की जिसमें (लोगों की) अनुदेश और प्रकाश है उसी के मुताबिक़ परमेश्वर के आज्ञाकारी भक्त यहूदियों को आदेश देते रहे और परमेश्वर वाले और विद्वान भी परमेश्वर की पुस्तक के अनुसार (आदेश देते थे) जिसके वह संरक्षक बनाए गए थे और वह उसके गवाह भी थे लेकिन (ऐ! आज्ञाकारीयों) तुम लोगों से (ज़रा भी) न डरो (बल्कि) मुझ ही से जिझको और मेरी आयतों के बदले में (दुनिया की दौलत जो असल हक़ीक़त बहुत थोड़ा मूल्य है) न लो और (समझ लो कि) जो व्यक्ति परमेश्वर द्वारा अवतरित की हुई (पुस्तक) के मुताबिक़ हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग काफ़िर हैं I

सूरः मायदा 5:44

इस आयत के अनुसार जो विद्वान/उलेमा/पंडित आदि परमेश्वर की ओर से आये हुए पवित्र ग्रंथों के अनुसार न्याय नहीं करते और धनवान और बाहुबलियों के प्रभाव में आकर पवित्र ग्रन्थों के आदेशों को छुपाकर धनवान और बलशाली लोगों के पक्ष में न्याय करते हैं तो परमेश्वर ने कहा ऐसे लोगों से भय न खाना और जिन्होंने पुस्तक के अनुसार न्याय नहीं किया जबकि वो क्या सत्य है जानते थे फिर भी सत्य को लालच के वश में छुपाया ऐसे लोगों को काफ़िर कहा है

وَأَمَّا الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ فَزَادَتْهُمْ رِجْسًا إِلَىٰ رِجْسِهِمْ وَمَاتُوا وَهُمْ كَافِرُونَ ﴿١٢٥﴾

(4) मगर जिन लोगों के दिल में (वैमनस्य की) बीमारी है तो उन (पिछली) दुष्टता पर अभिवृद्धि करते हुए उनकी दुष्टता और बढ़ा दी और ये लोग कुफ़्र (इंकार) ही की हालत में मर गए I

सूरः तौबा 9:125

इस आयत में परमेश्वर ने स्पष्ट कर दिया कि जिसके ह्रदय में वैमनस्य है जो एक गंभीर बीमारी है और उसकी दुष्टता पर और अभिवृद्धि करते हुए उनकी दुष्टता बड़ा दी, बढ़ाने का तात्पर्य यह है की ऐसे व्यक्ति को उसने और ढील दी ताकि उसे अपनी बीमारी का इलाज करने यानि प्रायश्चित का मौक़ा मिले लेकिन उसमे उसकी वैमनस्यता कि वृद्धि हुई जिसके के कारण उसकी दुष्टता और बढ़ी और ऐसे ही लोग इंकार करने वाले यानी काफ़िर हैं और उनके अहंकार की वजह से वो कुफ्र में ही मरेगा …. अगर ध्यान दें तो इस आयत में न ही मुस्लिम को और न ही ग़ैर मुस्लिमों को कहा बल्कि हर उस व्यक्ति को काफ़िर कहा जिसके ह्रदय में वैमनस्यता और दुष्टता होगी वो काफ़िर है I

وَإِذْ قُلْنَا لِلْمَلَائِكَةِ اسْجُدُوا لِآدَمَ فَسَجَدُوا إِلَّا إِبْلِيسَ أَبَىٰ وَاسْتَكْبَرَ وَكَانَ مِنَ الْكَافِرِينَ ﴿٣٤﴾

(5) और (उस वक्त क़ो याद करो) जब हमने देवताओं से कहा कि आदम के समक्ष माथा टेको तो सब के सब झुक गए मगर इबलीस ने इन्कार किया और अहंकार में आ गया और काफ़िर हो गया

सूरः बक्र: 2:34

यह आयत उस समय की है जब परमेश्वर ने प्रथम मानव कि रचना की और सभी देवताओं को आदेश दिया कि सब उसी सर्वश्रेष्ठ रचना के सामने अपना माथा टेकें सबने माथा टेका लेकिन इब्लीस (शैतान) ने माथा न टेका और परमेश्वर से इंकार कर दिया उसके अहंकार ने उसे काफ़िर बना दिया … इस आयत से स्पष्ट है की इब्लीस ने इंकार किया अपने अहंकार के कारण वो काफ़िर हुआ I

इबलीस ابلیس Iblees अरबी के शब्द लिबास से बना है जिसका बहुवचन यल्बिसो है , लिबास यानि शरीर को ढंकने वाला वस्त्र परमेश्वर ने उसको इब्लीस कह कर पुकारा जबकि उसका नाम अजाज़ील था इब्लीस इसलिए कहा कि वो अपने आप में बड़ा आलिम/प्रकाण्ड पंडित था जो देवताओं का शिक्षक था, समस्त ब्रह्मांड में ऐसा कोई स्थान न था जहाँ उसने परमेश्वर की पूजा/इबादत न की हो लेकिन परमेश्वर ने उसको बेनक़ाब किया की जिसके अंदर अहंकार है वो भक्त नहीं हो सकता बस वो भक्ति का चोला ओढ़ता है दिखावे के लिए ताकि लोग उसे ज्ञानी और भक्त जाने लेकिन उसके अहंकार ने उसे बेनक़ाब किया अर्थात जो भी व्यक्ति अपने आपको धार्मिक, आस्थावान, धर्मभीरू और सत्यवादी दर्शाए लेकिन अंदर से उसके अंदर अहंकार छुपा है तो ऐसा व्यक्ति इब्लीस है और काफ़िर है

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تُبْطِلُوا صَدَقَاتِكُم بِالْمَنِّ وَالْأَذَىٰ كَالَّذِي يُنفِقُ مَالَهُ رِئَاءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُ بِاللَّـهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ ۖ فَمَثَلُهُ كَمَثَلِ صَفْوَانٍ عَلَيْهِ تُرَابٌ فَأَصَابَهُ وَابِلٌ فَتَرَكَهُ صَلْدًا ۖ لَّا يَقْدِرُونَ عَلَىٰ شَيْءٍ مِّمَّا كَسَبُوا ۗ وَاللَّـهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ﴿٢٦٤﴾

(6) ऐ ईमानदारों आपनी खैरात को एहसान जताने और (सायल को) ईज़ा (तकलीफ) देने की वजह से उस शख्स की तरह अकारत मत करो जो अपना माल महज़ लोगों को दिखाने के वास्ते ख़र्च करता है और ख़ुदा और रोजे आखेरत पर ईमान नहीं रखता तो उसकी खैरात की मिसाल उस चिकनी चट्टान की सी है जिसपर कुछ ख़ाक (पड़ी हुई) हो फिर उसपर ज़ोर शोर का (बड़े बड़े क़तरों से) मेंह (बारिश) बरसे और उसको (मिट्टी को बहाके) चिकना चुपड़ा छोड़ जाए (इसी तरह) रियाकार अपनी उस ख़ैरात या उसके सवाब में से जो उन्होंने की है किसी चीज़ पर क़ब्ज़ा न पाएंगे (न दुनिया में न आख़ेरत में) और ख़ुदा काफ़िरों को हिदायत करके मंज़िले मक़सूद तक नहीं पहुँचाया करताI

सूरः बक्र: 2:264

इस आयत में भी परमेश्वर ने ईमानवालों को जो परमेश्वर और पैगंबरे इंसानियत पर इमान लाये कुरान पर ईमान लाये और फिर भी जब कोई भूखा, मजबूर आता है तो उसे कष्ट देते हैं और जब दान करते हैं तो लोगों को दिखाने के लिए खर्च करते हैं ऐसे लोगो का दान-पुण्य किसी काम न आएगा और ऐसे काफिरों (अहंकार और ज़बरदस्ती) करने वाला कभी भी सत्यमार्ग नहीं पा सकता और वो काफ़िर है परमेश्वर ऐसे व्यक्ति का कभी भी मार्गदर्शन नहीं करेगा I

इस आयत पर गौर करें कि मुसलमानों को भी काफ़िर कहा उनके कार्यों की वजह से I

وَأَخْذِهِمُ الرِّبَا وَقَدْ نُهُوا عَنْهُ وَأَكْلِهِمْ أَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ ۚ وَأَعْتَدْنَا لِلْكَافِرِينَ مِنْهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا ﴿١٦١﴾

(7) और बावजूद मुमानिअत सूद खा लेने और नाहक़ ज़बरदस्ती लोगों के माल खाने की वजह से उनमें से जिन लोगों ने कुफ़्र इख्तेयार किया उनके वास्ते हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है I

सूरः निसा 4:161

इस आयत में परमेश्वर ने स्पष्ट कर दिया की तुम को तो हमने सूद निषेध किया था (मुसलमानों) लेकिन मना करने बाद भी तुमने सूद लिया और जिस चीज़ पर तुम्हारा अधिकार नहीं था उसे ज़बरदस्ती लोगो से छीन कर खाया इन कारणों की वजह से तुमने कुफ्र को अपना लिया तुम अवज्ञाकारी बने तो हमने तुम जैसों के लिए एक दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है ….

अब इस आयत में किसी हिन्दू, किसी सिख , किसी ईसाई को काफ़िर नहीं कहा बल्कि खुद मुसलमानों को परमेश्वर ने काफ़िर कहा है I

وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ لَا تُفْسِدُوا فِي الْأَرْضِ قَالُوا إِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُونَ ﴿١١﴾

أَلَا إِنَّهُمْ هُمُ الْمُفْسِدُونَ وَلَـٰكِن لَّا يَشْعُرُونَ ﴿١٢﴾

और जब उनसे कहा जाता है कि "ज़मीन में बिगाड़ पैदा न करो", तो कहते हैं, "हम तो केवल सुधारक है।"

जान लो! वही हैं जो बिगाड़ पैदा करते हैं, परन्तु उन्हें एहसास नहीं होता

सूरः बक्र: आयत 11–12

أُولَـٰئِكَ الَّذِينَ اشْتَرَوُا الضَّلَالَةَ بِالْهُدَىٰ فَمَا رَبِحَت تِّجَارَتُهُمْ وَمَا كَانُوا مُهْتَدِينَ ﴿١٦﴾

यही वे लोग हैं, जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले में गुमराही मोल ली, किन्तु उनके इस व्यापार में न कोई लाभ पहुँचाया, और न ही वे सीधा मार्ग पा सके

सूरः बक्र: आयत 16

आज के मुसलमान किसे काफ़िर कहते हैं ?

वो गैर मुस्लिमों को काफिर कहते है जो सरासर गलत है ।

मुसलमान कोई देवता नहीं अपितु इन्सान ही हैं अगर उनके बुरे कार्यों को जो इस्लाम के खिलाफ है कोई रोके तो उस पर भी कुफ्र का फतवा लगा देते हैं और सत्ता के लिए चंद सिक्कों मैं किसी पर भी काफ़िर का तमगा नवाज़ते हैं जबकि असल में वो खुद कुफ्र कर रहे है उन्हें खुद खबर नहीं

अब आप स्वयं फैसला लें अल्लाह के द्वारा कहे को काफ़िर मानेंगे या कठमुल्लाओं द्वारा दिए गए फ़तवे के हिसाब से काफ़िर मानेंगे …

मुनाफ़िक़ का अर्थ :

मुनाफ़िक एक अरबी शब्द है  जिसका अर्थ है मुनाफक़त करने वाला यानी दोहरे चरित्र वाला जिसके दिल में कुछ और ज़बान पर कुछ, दिल में कीना रखने वाला, बहुमुख, पाखंडी, रियाकार( दिखावा करने वाला), मक्कार

(लाक्षणिक अर्थ) जिसकी देखने में मुसलमान लगे लेकिन वास्तव में मुसलमान न हो, जो धोका देने के लिए मुसलमान बनने का ढोंग करे (लाक्षणिक अर्थ) इस्लाम का दुशमन

(खगोल विद्या मे अर्थ) बुध ग्रह जो शुभ के साथ शुभ और अशुभ के साथ अशुभ है

मुशरिक का अर्थ

वह व्यक्ति जो ईश्वर को एक नहीं मानता, बल्कि उसके गुणों में औरों को भी सम्मिलित करता है, किसी को अल्लाह का समकक्ष मानने वाला, 

(लाक्षणिक अर्थ) काफिर, मूर्तीपूजक, बहुदेववादी

एक से ज्यादा अल्लाह/ ईश्वर/ गॉड मे विश्वास करना।

मुशरिक शब्द “शिर्क” से बना है । शिर्क का मतलब है “साझीदार(शरिक) बनाना” । जो अल्लाह के साथ किसी और को साझीदार बनाता है उसे ‘मुशरिक’ कहा जाता है ।

अल्लाह के गुण(सिफत) मे किसी और को साझीदार बनाना

उदाहरण के लिये : अल्लाह के सिवा किसी और को धन देनेवाला, शक्ति देनेवाला, कण-कण मे समाया हुआ मानना जबकि सच्चाई यह है कि एक अल्लाह के सिवा कोई धन, शक्ति देनेवाला नही और ना ही कोई हर जगह मौजूद है। एसा मानना शिर्क है और एसा माननेवाले इन्सानों को मुश्रिक कहा जाता है।

शिर्क क्या है थोडा विस्तार से जानते है ।

अरबी भाषा में शिर्क का अर्थ : साझी बनाना है अर्थात् किसी को दूसरे का साझीदार और भागीदार बनाना। कहा जाता है : "अश्रका बैनहुमा" जब वह उन्हें दो में विभाजित कर दे, या "अश्रका फी अम्रिहि ग़ैरहु" जब वह उस मामले को दो आदमियों के हाथ में कर दे।

शिर्क (अरबी: شرك širk) का धार्मिक अर्थ, अल्लाह के अलावा किसी भी चीज़ या किसी चीज़ का उपासना या पूजा)। इसका अर्थ है, अल्लाह के आराधना में अगर किसी को साझेदार बनाना यानी शिर्क करना है। इसे तौहीद (एकेश्वरवाद) के खिलाफ माना जाता है।

मुश्रिक (مشرك) (बहुवचन: مشركون) वो हैं जो शिर्क का अभ्यास करते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ "संगति" है - इसका अर्थ है, एकमात्र भगवान, अल्लाह के साथ अन्य देवताओं और ईश्वरों को स्वीकार करना (ईश्वर के सहयोगी के रूप में)। ईश्वरत्व में ईश्वर के सिवा और को भी सम्मिलित करना, अनेकेश्वरवादी होना।

शिर्क के प्रकार:

क़ुरआन व हदीस के नुसूस (सूत्रों) से इंगित होता है कि शिर्क और अल्लाह के अलावा किसी को प्रतिद्वंद्वी और समकक्ष बनाना कभी तो धर्म से निष्कासित करने वाला होता है, और कभी धर्म से निष्कासित नहीं करता है, इस लिए विद्वानों ने उसे दो प्रकार में विभाजित किया है : "शिर्क अक्बर और शिर्क अस्ग़र" (छोटा शिर्क और बड़ा शिर्क),और आप के सामने हर प्रकार की संछिप्त परिभाषा प्रस्तुत की जा रही है:

प्रथम : शिर्क अक्बर (बड़ा शिर्क)

अल्लाह के साथ कोई और भी है जो पैदा करता है, या जीवन और मृत्यु देता है (मारता और जिलाता है), या इस ब्रह्मांड में नियंत्रण करता है।

या यह आस्था रखना कि अल्लाह के साथ कोई और भी है जो प्रोक्ष का ज्ञान (इल्मे-ग़ैब) रखता है, 

यह आस्था रखना कि कोई ऐसा भी है जो उसी तरह दया करता है जो दया अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल के लिए ही योग्य है यानी अल्लाह तआला के समान दया करनेवाला कोई नही है फिर भी इसा मानना की कोई और भी पापों को क्षमा करता है, अपने भक्तों को माफ कर देता है और बुराईयों को क्षमा कर देता है।

जैसे कि कोई व्यक्ति ऐसी चीज़ में जिस पर केवल अल्लाह तआला ही सामर्थ्य रखता है, अल्लाह के अलावा किसी दूसरे से फर्याद करे, या सहायता मांगे, या शरण ढूंढ़े ; चाहे वह दूसरा ईश्दूत हो, या सदाचारी, या फरिश्ता, या जिन्न, या इसके अलावा कोई अन्य मख्लूक़ (सृष्टि) हो, यह शिर्क अक्बर में से है जो धर्म से निष्कासि कर देता है।

दूसरा : शिर्क अस्ग़र (लघु शिर्क) :

हर वह चीज़ जो शिर्क अक्बर का कारण (अर्थात् उस की ओर ले जाने वाली) हो, या जिस के बारे में क़ुर्आन व हदीस के नुसूस (ग्रंथों) में यह वर्णित हुआ है कि वह शिर्क है किन्तु वह शिर्क अक्बर की सीमा तक नहीं पहुँचती है।

और यह आम तौर पर दो प्रकार से होता है:

प्रथम : कुछ ऐसे कारणों से संबंध जोड़ना जिन की अल्लाह तआला ने अनुमति नहीं दी है, जैसे कि हथेली और माला (मनका) और इसी जैसी चीज़ें इस उद्देश्य से लटकाना कि ये सुरक्षा का कारण हैं, या ये बुरी नज़र को दूर करती हैं जबकि अल्लाह तआला ने इन्हें शरई तौर पर और न ही प्राकृतिक तौर पर इनका कारण नहीं बनाया है।

दूसरा : कुछ चीज़ों का इस प्रकार सम्मान करना जो उसे रुबूबियत (स्वामित्व) के स्थान तक न पहुँचाये, जैसे कि ग़ैरूल्लाह की क़सम खाना, और इसी तरह यह कहना कि : अगर अल्लाह और फलाँ न होता (तो ऐसा हो जाता) इत्यादि।

विद्वानों ने कुछ ऐसे नियम और क़ायदे निर्धारित किये हैं जिन के द्वारा शरई नुसूस में वर्णित होते समय शिर्क अक्बर और शिर्क अस्ग़र के बीच भिन्नता और अंतर स्पष्ट हो जाता है, उन नियमों में से कुछ निम्नलिखित हैं:

1- नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम स्पष्ट रूप से यह वर्णन कर दें कि यह काम लघु शिर्क (छोटा शिर्क) है : जैसा कि मुस्नद अहमद (हदीस संख्या :27742) में महमूद बिन लबीद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा कि : अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "मुझे तुम्हारे ऊपर सब से अधिक छोटे शिर्क का डर है।" लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के पैग़ंबर! छोटा शिर्क क्या है ? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उत्तर दिया : "रियाकारी (किसी को दिखाने के लिये कोई काम करना)। अल्लाह तआला जिस दिन बन्दों को उन के कामों का बदला देगा उस दिन फरमायेगा : तुम लोग उन लोगों के पास जाओ जिन्हें दिखाने के लिए तुम दुनिया में अपने कार्य करते थे, फिर देखो कि क्या तुम उन के पास बदला पाते हो।" (अल्बानी ने अस्सिलसिला अस्सहीहा में हदीस संख्या: 951 के अंतरगत इसे सहीह कहा है)।

 बिना अलिफ लाम के हो- तो आम तौर पर इस से अभिप्राय शिर्क अस्ग़र (छोटा शिर्क) होता है,
और इसके ढेर सारे उदाहरण हैं, जैसे कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "मंत्र (झाड़-फूँक), ताबीज़-गण्डा और प्रेम-मंत्र शिर्क है।" (अबू दाऊद हदीस संख्या : 3883, अल्बानी ने अस्सिलसिला अस्सहीहा (331) में इसे सहीह कहा है).

ताबीज़-गण्डा ,प्रेम-मंत्र ,मुराद, बुरा शकुन लेना शिर्क है, बुरा शकुन (फाल) लेना शिर्क है। शिर्क अस्ग़र कभी-कभी प्रत्यक्ष (ज़ाहिर) होता है जैसे कि छल्ला, धागा और ताबीज़ पहनना और इसी तरह के अन्य कर्म और कथन। और कभी छिपा हुआ (गुप्त) होता है जैसे कि मामूली रियाकारी (दिखावा) करना।

"इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बाद शिर्क से कौन निर्भय हो सकता है।" एसी भी कहावत है यानी जाने अनजाने सब छोटे छोटे शिर्क करते ही रहते है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया "तुम्हारे अंदर शिर्क चींटी का चाल से भी अधिक सूक्ष्म (गुप्त) है, और मैं तुझे एक ऐसी चीज़ बताऊँगा कि जब तुम उसे कर लोगे तो वह तुम से छोटे और बड़े शिर्क को समाप्त कर देगी, तुम कहो:

"अल्लाहुम्मा इन्नी अऊज़ो बिका अन् उश्रिका बिक व अना आ'लम, व अस्तग़फिरूका लिमा ला आ'लम"

"ऐ अल्लाह मैं इस बात से तेरे शरण में आता हूँ कि मैं जानबूझ कर तेरे साथ शिर्क करूँ, और मैं उस चीज़ से तेरी क्षमा चाहता हूँ जिसे मैं नहीं जानता।" ( इस हदीस को अल्बानी ने सहीहुल जामिअ़ (373) में सहीह कहा है।)

जज़िया

जज़िया एक प्रकार का धार्मिक कर है पर इसका इस्तमाल राजनैतिक तौर पर खजाने की आवक बढाने के लिये ही होता नजर आता है । इसे मुस्लिम राज्य में रहने वाली गैर मुस्लिम जनतासे वसूल किया जाता है। इस्लामी राज्य में केवल मुसलमानों को ही रहने की अनुमति थी और यदि कोई गैर-मुसलमान उस राज्य में रहना चाहे तो उसे जज़िया देना होगा। इसे देने के बाद गैर मुस्लिम लोग इस्लामिक राज्य में अपने धर्म का पालन कर सकते थे। जज़िया को कुछ लोगों द्वारा एक मुस्लिम राज्य में गैर-मुसलमानों के इस्लाम में परिवर्तित नहीं होने के लिए एक बैज (badge) या अपमान की स्थिति के रूप में भी समझा गया है,

भारत में जजिया

भारत में जजिया का इतिहास सर्वप्रथम मुहम्मद बिन कासिम के सिंध में विजय के पश्चात् 712 से मिलता है। जजिया कर राज्य में सम्पूर्ण जनता पर न लगाकर केवल गैर-मुसलमानों से वसूल किया जाता था, ताकि उनकी सम्पत्ति एवं सम्मान की रक्षा की जाये। इस कर से महिलाऐं, बच्चे, साधु एवं भिक्षुक मुक्त थे। ब्राह्मण वर्ग भी इस कर से मुक्त था।

एक अन्य शोध में यह सामने आया है कि ब्राह्मणों और सवर्णों को सामान्यत लगने वाला जजिया कर भी नहीं लगता था हलांकि यह कर सरकार के राजस्व का एक साधन होता था। कोई भी शासक रहा लेकिन ब्राह्मणों को कोई तकलीफ नहीं होती थी।

ऐसा नहीं है कि मुस्लिमों ने ही गैर मुस्लिमों से इस प्रकार का धार्मिक कर बसूला। गहड़वालों ने भी अपने राज्य में तुरुष्कदण्ड नामक एक कर लगाया। जोकि उनके राज्य में रहने वाले मुस्लिमों पर लगाया गया था।

जजिया कर को किसने हटवा दिया था?

जजिया कर को मुगल बादशाह अकबर ने 1564 में कटवाया था। यह पूरी तरह से 1579 में हट गया था। परन्तु औरंगज़ेब ने इसे 1679 में वापिस लगवा दिया। उसके बाद इस कर को हटाने और पुन्ह लगाने का सिलसीला चलता ही रहा अंत में 1720 ईo में मुहम्मद शाह रंगीला ने जयसिंह के अनुरोध पर जजिया कर को सदा के लिए समाप्त कर दिया।

जिहाद का मतलब क्या है ?

जिहाद (अरबी: جهاد‎ ; जिहाद ) एक अरबी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है प्रयास करना या संघर्ष करना , विशेष रूप से एक प्रशंसनीय उद्देश्य के साथ

जिहाद शब्द का शाब्दिक अर्थ :

1. प्रयत्न

2. इन्द्रियों को वश में करना

3. नैतिक मूल्यों के संरक्षण के लिए की जाने वाली ज़द्दोज़हद या संघर्ष, किसी जायज़ माँग के लिए भरपूर कोशिश करने वाला या आंदोलन

4. सुरक्षात्मक युद्ध, धर्म-युद्ध, धर्म की सुरक्षा अथवा अपने सहमियों के लिए किया जानेवाला युद्ध, धर्म के लिए विधर्मियों से युद्ध 

धर्म-युद्ध की व्याख्या महाभारत मे भी कुछ इसप्रकार की है  

धर्म की रक्षा के लिए अथवा किसी महान उद्देश्य से किया  जाने वाला युद्ध 

इसे और विस्तार से जानने के लिये धर्म का अर्थ समझना जरूरी है।

धर्म शब्द का व्यावहारिक अर्थ क्या है?

कर्तव्य !

उदाहरण :

सैनिक का धर्म : ड्यूटी पर मुस्तैद

शिक्षक का धर्म : ज्ञान बांटना

छात्र का धर्म : ज्ञान बटोरना

नेता का धर्म : समाज की भलाई

कसाई का धर्म : जानवर काटना

ताकतवर का धर्म : कमज़ोरों की रक्षा करना

पत्नी का धर्म : पति को सर्वोपरि मानना यानी आदर और देखभाल करना 

पति का धर्म : पत्नी को सर्वोपरि मानना यानी आदर और देखभाल करना

एसे आनेक धर्म यानी कर्तव्य होते है जिन्हे पुत्र धर्म , पत्नी धर्म , मानव धर्म इत्यादी अनेक नामोंसे जाना जाता है। इनके अनेक कर्तव्य होते है। और अपने कर्तव्य को निभाने के लिये जो प्रयास करते है या कष्ट उठाते है उसे भी धर्म युध्द कहा जाता है।

एसे ही जिहाद का अर्थ भी सर्वप्रथम खुद की बुराइयों पर विजय है. इस्लाम के जानकार मानते हैं कि जिहाद का शाब्दिक अर्थ अत्यधिक प्रयास या exerted effort है. अत्यधिक प्रयास का अर्थ है खुद में बदलाव करने की बड़ी कोशिश. कुछ परिस्थितियों में जिहाद को अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना भी बताया जाता है.

इस्लाम में इसकी बड़ी अहमियत है। दो तरह के जेहाद बताए गए हैं। एक है जेहाद अल अकबर यानी बड़ा जेहाद और दूसरा है जेहाद अल असग़र यानी छोटा जेहाद और इनमे भी कई प्रकार है।इसके इस्लामी सन्दर्भ में अर्थ के बहुत से रंग हैं, जैसे कि किसी के बुराई झुकाव के खिलाफ संघर्ष, अविश्वासियों को बदलने का प्रयास, या समाज के नैतिक भरोसे की ओर से प्रयास,

इस्लामिक विद्वानों ने आमतौर पर रक्षात्मक युद्ध के साथ सैन्य जिहाद को समानता प्रदान की है। सूफी और पान्थिक मण्डल में, आध्यात्मिक और नैतिक जिहाद को पारम्परिक रूप से अधिक जिहाद के नाम पर बल दिया गया है।

इस शब्द ने आतंकवादी समूहों द्वारा अपने उपयोग के द्वारा हाल के दशकों में अतिरिक्त ध्यान आकर्षित किया है।आधुनिक युग में, जिहाद की धारणा ने अपनी न्यायिक प्रासंगिकता को खो दिया है और इसके बजाय एक वैचारिक और राजनीतिक प्रवचन को जन्म दिया है। जबकि आधुनिक इस्लामिक विद्वानों ने जिहाद की रक्षात्मक और अ-सैन्य पहलुओं पर बल दिया है,

जिहाद शब्द अक्सर कुरान में सैन्य अर्थों के बिना दिखाई देता है, अक्सर मुहावरेदार अभिव्यक्ति "ईश्वर के मार्ग (अल जिहाद फाई सैबिल अल्लाह) में प्रयास कर रहा है"। शास्त्रीय युग के इस्लामिक न्यायविदों और अन्य उलेमा ने मुख्य रूप से एक सैन्य अर्थ में जिहाद की दायित्व को समझ लिया था। उन्होंने जिहाद से सम्बन्धित नियमों का एक विस्तृत सेट विकसित किया, जिसमें उन लोगों को नुकसान पहुँचाने के प्रतिबन्ध शामिल हैं, जो लड़ाई में शामिल नहीं हैं।

जिहाद अल अकबर

जेहाद अल अकबर अहिंसात्मक संघर्ष है। सबसे अच्छा जिहाद दण्डकारी सुल्तान के सामने न्याय का शब्द है - इब्न नुहास द्वारा उद्धृत किया गया और इब्न हब्बान द्वारा सुनाई

स्वयं के भीतर मौजूद सभी बुराईयों के खिलाफ लड़ने का प्रयास और समाज में प्रकट होने वाली ऐसी बुराईयों के विरुद्ध लड़ने का प्रयास। (इब्राहिम अबूराबी हार्ट फोर्ड सेमिनरी)

नस्लीय भेद-भाव के विरुद्ध लड़ना और औरतों के अधिकार के लिए प्रयास करना (फरीद एसेक औबर्न सेमिनरी )

एक बेहतर छात्र बनना, एक बेहतर साथी बनना , एक बेहतर व्यावसायी सहयोगी बनना और इन सबसे ऊपर अपने क्रोध को काबू में रखना (ब्रुस लारेंस ड्यूक विश्वविद्यालय)

जिहाद-अल-असग़र

जिहाद अल असग़र का उद्देश्य इस्लाम के संरक्षण के लिए संघर्ष करना होता है। जब इस्लाम के अनुपालन की आज़ादी न दी जाये, उसमें रुकावट डाली जाए, या किसी मुस्लिम देश पर हमला हो, मुसलमानों का शोषण किया जाए, उनपर अत्याचार किया जाए तो उसको रोकने की कोशिश करना और उसके लिए बलिदान देना जिहाद -अल-असग़र है।

'सूफी' शब्द का अर्थ क्या हैं?

सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के शब्द सफ या फिर सूफ से हुई है.

सफ का अर्थ है कार्पेट यानी गलीचा. मुस्लिम संत जो कि कार्पेट पर बैठ कर अपनी साधना करते थे सूफ़ी कहलाने लगे.

सूफ़ शब्द का अर्थ है ऊन. मुस्लिम संत अपनी साधना के समय मोटी और खुरदरी ऊन के कपड़े पहनते थे इसलिए वे सूफ़ी कहलाने लगे.

आजकल ऐसे सूफ़ी संतों के खुदा की शान में और इबादत में लिखे सूफ़ी गीतों को गाकर कुछ गायक अपने आप को सूफ़ी singer कहलवा रहे हैं.

असलियत में तो सूफ़ी वो है जिसके जीने का बस एक ही मकसद खुदा को पाना है.

कुरान की वो आयते जिनपे आरोप है  

अब कुरान की उन आयतों को जानते है की जिनपे युध्द या जिहाद को चलाना देने का आरोप है ।

सूरा आयत 2:98  का अर्थ बताया जाता है की अल्लाह गैर मुस्लिमों का शत्रु है ! जब की इसमे एसा कुछ नही कहा है वो पुरी आयत इसतरहा है।

2.98 जो कोई अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिबरील और मीकाईल का शत्रु हो, तो ऐसे इनकार करनेवालों का अल्लाह शत्रु है।"

इसमे रसूल नही कहा है बल्कि रसूलों ये बहुवचन आया है और इस्लाम के मुताबिक एक लाख चैबीस हजार से  एक लाख पचींस हजार नबी और रसूल इस दूनयामे आये है ।

पवित्र कुरान अध्याय 40 सूरह गफिर श्लोक 78 में अल्लाह कहते हैं:

ऐ पैग़म्बर, हमने तुमसे पहले बहुत से रसूल भेजे हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिनकी कहानियाँ हमने तुमसे संबंधित की हैं, और कुछ की जो हमने संबंधित नहीं की हैं।

यानी कुछ के नाम और काम के बारे मे हम ने आपको बताये है और बहोत सोंके नाम और काम हमने आपको नही बताये है। इसका मतलब साफ है की अल्लाह ने जीतने नाम पैगंबर को बताये वो उनसे संबंधीत थे और उतनो का ही उल्लेख हमे कुरान और हदीसों मे मीलता है जीनका उल्लेख कुरान या हदीसो मे नही है एसे भी अनेक रसूल और नबी दूनया मे है और इस्लाम के ही मुताबिक आप उनका अनादर नही कर सकते । सब से पहीले तो मूसलमानों को यह समझने की जरूरत है।
जैसा कि मैंने उपरोक्त आयत में कहा है, पवित्र कुरान में केवल कुछ पैगंबरों के नाम का उल्लेख है। केवल 25 पैगंबरों के नामों का उल्लेख किया गया है और वे हैं:

एडम/आदम, नूह , इदरीस  ,हुड, सालिह ,इब्राहिम /अब्राहम, लूत , इस्माइल , अल-यासा, ज़ुल्किफ़्ल , इलियास, अय्यूब , यूनुस , इशाक , याकूब, यूसुफ , शुएब , मूसा, हारून , दाऊद , सुलेमान , जकारिया, याह्या , ईसा / ईसा मसीह , मुहम्मद पैगंबर 

अब एक लाख पंचीस हजार मे से केवल 25 नाम ही बताये गये है तो सोचो की गैब यानी बीना मालूमात के कीतने है ? या एसे कहो की सच्चाई यह है कि अल्लाह ही जानता है कि उसने अपने दूत, पैगंबर मोहम्मद (SAW) को अपने संदेश के साथ भेजने से पहले मानव जाति के मार्गदर्शन के लिए पृथ्वी पर कहाँ और कितने पैगंबर भेजे हैं। और इन सभी को सूरा 2 आयत 98 मे रसूलों इस शब्द के व्दारा सम्मीलित किया गया है।   

सूरा आयत 3:85  का अर्थ  इस्लाम के अलावा कोई अन्य धर्म/मजहब स्वीकार नहीं है ! एसा कियाजा रहा है अब इस पुरी आयत को देखते है।

3.85 जो इस्लाम के अतिरिक्त कोई और दीन (धर्म) तलब करेगा तो उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न किया जाएगा। और आख़िरत में वह घाटा उठानेवालों में से होगा।

अब इसका सही मतलब जानने के लिये उससे पहिले की ये आयत मालूम होना जरूरी है वरना अर्थ का अनर्थ होते देर नही लगेंगी वो आयत ये है।

  3.84 कहो, "हम तो अल्लाह पर और उस चीज़ पर ईमान लाए जो हम पर उतरी है, और जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़ और याकूब़ और उनकी सन्तान पर उतरी उसपर भी, और जो मूसा और ईसा और दूसरे नबियों को उनके रब की ओर से प्रदान हुई (उसपर भी हम ईमान रखते हैं) । हम उनमें से किसी को उस सम्बन्ध से अलग नहीं करते जो उनके बीच पाया जाता है, और हम उसी के आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं।"

अब इससे यह स्पष्ट हो जाता है की फिरसे यहा सभी नबीयोंका जिक्र किया है जो इस्लाम के मुताबिक एक लाख चैबीस हजार से  एक लाख पचींस हजार है और दूनया के अलग अलग जरोंपर यानी भूमी पर अलग अलग जगहों पर अलग अलग समय मे आये इन सभी नबी और रसुलोंका यहा भी जिक्र है ।

कुरान और पैग़ंबर मुहम्मद साहब से साफ कहा है कि इस्लाम कोई नया दीन नहीं है बल्कि यह वही दीन है जिसके मानने वाले आदम से लेकर ईसा तक थे! अब दूसरी ओर से देखे तो यह सारे पैग़ंबर/नबी/अवतार वही दीन को मानने वाले है जो पुर्वापार चला आ रहा है पहिले मनुष्य से ले के अब तक तो विचार करो इसमे वून सभी पंथोंका /धर्मो का समावेश होता है जो परमात्मा को समर्पित है और इन्सानियत की बात रखते है जीवो और जीने दो यही इन्सानियत है इसके विरूध्द जो जीने का हक्क नकारता है वो धर्म हो ही नही सकता और उसी के अस्वीकार की बात यहा की है ये कुरान पुरा पढनेपर और त्तकालीन अरब का इतिहास जानने पर की किस हालात मे ये आयत उतारी गयी थी और भी जादा स्पष्ट हो जाता है । 

इस्लाम कोई नया धर्म नही वो पुर्वापार ही चलाआ रहा है एसा पैगंबर ने कहा है और गीता मे भी कृष्ण कहते है की इसी सनातन यानी पुर्वापार चले आनेवाले धर्म का / ग्यान का उपदेश मैने पहिले सुर्य को किया था फिर उसने वैवस्वत मनू को किया और मनू ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को कहा था वही धर्म मै तुम्हे फीर से बताता हू अर्जून 

श्रीमत भगवत गीता के चौथे अध्याय के पहिले तीन श्लोकोमें यही बात कही गयी है वो श्लोक और और उसके भावार्थ निचे दिये है।

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥4.1॥

भावार्थ : श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥4.1॥

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप৷৷4.2৷৷

भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया॥4.2॥

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ৷৷4.3৷৷

भावार्थ : तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है ॥4.3॥

इससे यही साबित होता है की पूरातन ग्यान ही बारबार पुन्ह स्थापीत हूवा है इस्लाम भी यही कहता है की कोई नयी बात नही बतायी जा रही है बलकी आप जीसे भूल चूके उसी को कहा जा रहा है ।

इन दोनो बातो मे अंतर है तो बस भाषा और परिवेश का बाकी भावार्थ तो एक जैसा ही है सब का । 

सूरा आयत 8:12 का अर्थ  इस्लाम को इंकार करने वालों के दिलों में अल्लाह खौफ भर देगा और मुसलमानों तुम उनकी गर्दन पर वार करके उनका अंग-अंग काट दो ! इतना खौफनाक लगाया जाता है जब की ये आयत युध्द के दौरान उतरी थी पुरी आयत इसतरहा है 

8.12 याद करो जब तुम्हारा रब फ़रिश्तों की ओर प्रकाशना (वह्य्) कर रहा था कि "मैं तुम्हारे साथ हूँ। अतः तुम ईमानवालों को जमाए रखो। मैं इनकार करनेवालों के दिलों में रोब डाले देता हूँ। तो तुम उनकी गरदनें मारो और उनके पोर-पोर पर चोट लगाओ!"

इस आयत  मोहम्मद पैगंबर पर जब उनके विरोधकोंने हमला किया और उन मे युध्द हुवा तब की है इसका मतलब ये नही की आज भी हम युध्द के मैदान के बहार किसी का भी गला काटते फिरे 

सूरा आयत 3:118 इस आयत का अर्थ कुछ इसतरह लगाया जाता है की केवल मुसलमानों को ही अपना अंतरंग मित्र बनाओ ! जब की ये पुरी आयत इसतरह है ।

3.118 ऐ ईमान लानेवालो! अपनों को छोड़कर दूसरों को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ, वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं करते। जितनी भी तुम कठिनाई में पड़ो, वही उनको प्रिय है। उनका द्वेष तो उनके मुँह से व्यक्त हो चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए हैं, वह तो इससे भी बढ़कर है। यदि तुम बुद्धि से काम लो, तो हमने तुम्हारे लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं।

इस मे मित्रता देख परख के करनी चाहिये वरना मूसीबत बन सकती है एसी हिदायत पैगंबर साहब को खूदाने दी है।

अब मित्रता अपने धर्म / पंथ मे करो या बहार पर सही से देखभाल के नही करोगे तो धोका मिलेगा इससे कोन इनकार कर सकता है।

सूरा आयत 3:28 और 9:23 का मतलब गैर मुस्लिमों को दोस्त न बनाओ ! एसा किया जाता है । ये पुरी आयतेय कुछ इसतरह है ।

3.28 ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों से हटकर इनकार करनेवालों को अपना मित्र (राज़दार) न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि उससे सम्बद्ध यही बात है कि तुम उनसे बचो, जिस प्रकार वे तुमसे बचते हैं। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और अल्लाह ही की ओर लौटना है।

9.23 ऐ ईमान लानेवालो! अपने बाप और अपने भाइयों को अपने मित्र न बनाओ यदि ईमान के मुक़ाबले में कुफ़्र उन्हें प्रिय हो। तुममें से जो कोई उन्हें अपना मित्र बनाएगा, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी होंगे।

अब इन आयतों को सही से जानने के लिये कुछ बातों का पता होना बहोत जरूरी है । कुरान की ही सूरा 3 के आयत 19,20,21,22 मे जो कहा है उससे 3: 28 का मतलब स्पष्ट होता है 

3.19 दीन (धर्म) तो अल्लाह की नज़र में इस्लाम ही है। जिन्हें किताब दी गई थी, उन्होंने तो इसमें इसके पश्चात विभेद किया कि ज्ञान उनके पास आ चुका था। ऐसा उन्होंने परस्पर दुराग्रह के कारण किया। जो अल्लाह की आयतों का इनकार करेगा तो अल्लाह भी जल्द हिसाब लेनेवाला है।

3.20 अब यदि वे तुमसे झगड़ें तो कह दो, "मैंने और मेरे अनुयायियों ने तो अपने आपको अल्लाह के हवाले कर दिया है।" और जिन्हें किताब मिली थी और जिनके पास किताब नहीं है, उनसे कहो, "क्या तुम भी इस्लाम को अपनाते हो?" यदि वे इस्लाम को अंगीकार कर लें तो सीधा मार्ग पा गए। और यदि मुँह मोड़ें तो तुमपर केवल (संदेश) पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है। और अल्लाह स्वयं बन्दों को देख रहा है।

3.21 जो लोग अल्लाह की आयतों का इनकार करें और नबियों को नाहक़ क़त्ल करने के दर पे हों, और उन लोगों को क़त्ल करें जो न्याय का पालन करने को कहें, उनको दुखद यातना की मंगल सूचना दे दो।

3.22 यही लोग हैं, जिनके कर्म दुनिया और आख़िरत में उनके लिए वबाल बने, और उनका सहायक कोई भी नहीं।

अब इसमे उनका उल्लेख है जिनके पास ग्यान है पर वो उसे छुपाते फिरते है या अपने फायदे के लिये उसका गलत मतलब निकालते है। और इसमे स्पष्ट किया है की केवल संदेश देना आपका काम है उसे मनवाना आपका काम नही है ।  

जहा तक सूरा 9 आयत 23 का सवाल है तो गीता मे भी श्री कृष्ण ने पितामह भीष्म , आचार्य द्रोण , कृपाचार्य , इत्यादी को अपना ना मानने को कहा है अर्जून को किंव की वो दुर्योधन अधर्म के पक्ष मे है ये मालूम होते हुये भी उस के पक्ष मे खडे थे इस लिये वो कितने भी अपने हो उनसे युध्द करना अनिवार्य है ये समजाने के लिये श्रीकृष्ण ने अर्जून को उपदेश दिया है। सूरा 9 आयत 23 मे भी कुछ एसा ही उपदेश अल्लाह पैगंबर को दे रहे है किंव की वहा भी जो पैगंबर के विरोध मे खडे थे उनमे कही उनके अपने ही थे ये सच्चाई जाने बगैर आयतों का अर्थ लगा बवाल मचना गलत है। 

यहा किताब वालों की बात हो रही है कुरान मे आसमानी जहीफ़ों (किताबों) का उल्लेख है जो अल्लाह ने अपने नबियों को दी,, मैंने कई विद्वानो को यह लिखते देखा है कि चारो वेदो मे लिखी वाणी ईश्वरी है!! वेदो  में स्वयंभू मनू से लेकर कल्कि अवतार तक का उल्लेख मिलता है, तो क्या ये एक ही श्रृंखला नहीं है जो आदम (स्वयंभू मनु) से शुरू है और मुहम्मद साहब  तक चली आती है। और मोहम्मद साहब ने भी उसका वर्णन महदी या मेहंदी अले इस्लाम तक कीया है ।

इस्लाम मे भी जहीफ़ों किताबों के बारे मे ये अबुज़र ग़फ़्फ़ारी राज़ी° से रिवायत है मैं ने अर्ज़ किया। या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह तआला ने कुल कितनी किताबें नाज़िल फरमाई। फ़रमाया 104 और हज़रत शीश अलैहिस्सलाम पर 50 सहीफ़े नाज़िल हुए। और अब इंसानो का शजरा शीश अलैहिस्सलाम से ही मिलता है।  बाक़ी आदम अलैहिस्सलाम की नस्ल ख़त्म हो गई थी।

यानी असमानी किताबे सिर्फ चार ही है ये मान्यता एकदम सटीक नही है खूद मोहम्मद पैगंबरजी ने इनकी सख्या 104 से अधीक बताई है।

अब सवाल उठता है कि जब स्रोत एक ही है तो फिर भिन्नता क्यों?? इसका सटीक उत्तर यह है कि जब आदम या मनु की संतानें पूरी दुनिया मे फैलीं तो भौगोलिक परिस्थितियां/ जलवायु आदि वह कारक थे जिनकी वजह से इनके खानपान/ रहनसहन भाषा आदि मे परिवर्तन आता गया और धर्म कभी भी इन परिवर्तनो को नकारता नहीं है!!

सूरा आयत 8:39 इसका मतलब गैर मुस्लिमों से तब तक युद्ध करो जब तक कि अल्लाह का दीन पूरी तरह कायम न हो जाए ! एसा लगाया जाता है। अब ये पुरी आयत देखते है।

8.39 उनसे युद्ध करो, यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन (धर्म) पूरा का पूरा अल्लाह ही के लिए हो जाए। फिर यदि वे बाज़ आ जाएँ तो अल्लाह उनके कर्म को देख रहा है।

सूरा आयत 22:30 का अर्थ कुछ इसतरह लगाया जाता है।  मूर्तियाँ गन्दगी हैं ! अब इस आयत को पुरा देखते है।

22.30 इन बातों का ध्यान रखो और जो कोई अल्लाह द्वारा निर्धारित मर्यादाओं का आदर करे, तो यह उसके रब के यहाँ उसी के लिए अच्छा है। और तुम्हारे लिए चौपाए हलाल हैं, सिवाय उनके जो तुम्हें बताए गए हैं। तो मूर्तियों की गन्दगी से बचो और बचो झूठी बातों से।

अब इसका संदर्भ जाननेके लिये इस आयत की पहले की सूरा 22 की 26 वी आयत जानना जरूरी है।   

22.26 याद करो जब कि हमने इबराहीम के लिए अल्लाह के घर को ठिकाना बनाया, इस आदेश के साथ कि "मेरे साथ किसी चीज़ को साझी न ठहराना और मेरे घर को तवाफ़ (परिक्रमा) करनेवालों और खड़े होने और झुकने और सजदा करनेवालों के लिए पाक-साफ़ रखना।"

अब इबराहीम / अब्राहम इश्वर के केवल निराकार उपासना को मानते थे इसी वजह से उनका अपने पीता से जो मुर्तीकारीथे झगडा हो गया और उनके पीताने उन्हे बहार निकाल दिया तब वो मध्यएशीया मे आ बसे तो उनके वंशजों को उनके बना ये हुये काबा को पवित्र रखने को कहा गया है।

सूरा आयत 9:5 इस आयत का मतलब कुछ एसा बताया जाता है।   मूर्तिपूजकों को जहाँ और जैसे पाओ वहाँ घात लगा कर मार दो ! जब की ये पूरी आयत एसी है 

9.5 फिर, जब हराम (प्रतिष्ठित) महीने बीत जाएँ तो मुशरिकों को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो, उन्हें पकड़ो और उन्हें घेरो और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो उनका मार्ग छोड़ दो, निश्चय ही अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है।

अब इस आयत मे कही भी मूर्तिपूजक ये शब्द नही है और इस आयत के पहले की आयत जाने बगैर इसका अर्थ लगाना अनर्थ कर सकता है  

9.1 मुशरिकों (बहुदेववादियों) से जिनसे तुमने संधि की थी, विरक्ति (की उदघोषणा) है अल्लाह और उसके रसूल की ओर से।

यहा पे पैगंबर और मक्का के उनके अपने ही वंश के लोगों मे जो विवाद था और उनकी जो संधी हुयी थी उस बात का उल्लेख हैं उसमे सारी दुनया को घसीटने की जरूरत नही है।

सूरा आयत 33:61 का मतलब एसा बताया जा रहा है  मुनाफिक और मूर्तीपूजक जहाँ भी पकड़े जाएंगे बुरी तरह कत्ल किये जायेंगे ! जब की ये पूरी आयत इसतरह है।

33.61 फिटकारे हुए होंगे। जहाँ कहीं पाए गए पकड़े जाएँगे और बुरी तरह जान से मारे जाएँगे।

33.62 यही अल्लाह की रीति रही है उन लोगों के विषय में भी जो पहले गुज़र चुके हैं। और तुम अल्लाह की रीति में कदापि परिवर्तन न पाओगे।

इस आयत को जानने से पहिले उसके संदर्भ को जानना जरूरी है।

33.60 यदि कपटाचारी और वे लोग जिनके दिलों में रोग है और मदीना में खलबली पैदा करनेवाली अफ़वाहें फैलाने वाले बाज़ न आएँ तो हम तुम्हें उनके विरुद्ध उभार खड़ा करेंगे। फिर वे उसमें तुम्हारे साथ थोड़ा ही रहने पाएँगे,

इस मे कही भी मूर्तीपूजक शब्द का उल्लेख नही है बल्की मदीना मे जो पैगंबर के विरोधी थे उनका उल्लेख है इसमे भी पुरी दुनया को घसीटने की जरूरत नही है।

सूरा आयत 3:62,2:255,27:61और 35:3 का अर्थ  अल्लाह के अलावा कोई अन्य प्रभु पूज्य नहीं है ! अब इन सभी आयतों को पूरा पढते है।

3.62 निस्संदेह यही सच्चा बयान है और अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं। और अल्लाह ही प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है

2.255  ख़ुदा ही वो ज़ाते पाक है कि उसके सिवा कोई माबूद नहीं (वह) ज़िन्दा है (और) सारे जहान का संभालने वाला है उसको न ऊँघ आती है न नींद जो कुछ आसमानो में है और जो कुछ ज़मीन में है (गरज़ सब कुछ) उसी का है कौन ऐसा है जो बग़ैर उसकी इजाज़त के उसके पास किसी की सिफ़ारिश करे जो कुछ उनके सामने मौजूद है (वह) और जो कुछ उनके पीछे (हो चुका) है (खुदा सबको) जानता है और लोग उसके इल्म में से किसी चीज़ पर भी अहाता नहीं कर सकते मगर वह जिसे जितना चाहे (सिखा दे) उसकी कुर्सी सब आसमानॊं और ज़मीनों को घेरे हुये है और उन दोनों (आसमान व ज़मीन) की निगेहदाश्त उसपर कुछ भी मुश्किल नहीं और वह आलीशान बुजुर्ग़ मरतबा है

27.60 ये वो है, जिसने उत्पत्ति की है आकाशों तथा धरती की और उतारा है तुम्हारे लिए आकाश से जल, फिर हमने उगा दिया उसके द्वारा भव्य बाग़, तुम्हारे बस में न था कि उगा देते उसके वृक्ष, तो क्या कोई पूज्य है अल्लाह के साथ? बल्कि यही लोग (सत्य से) कतरा रहे हैं।

﴾ 27.61 ﴿ या वो है, जिसने धरती को रहने योगय्य बनाया तथा उसके बीच नहरें बनायीं और उसके लिए पर्वत बनाये और बना दी, दो सागरों के बीच एक रोक। तो क्या कोई पूज्य है अल्लाह के साथ? बल्कि उनमें से अधिक्तर ज्ञान नहीं रखते।

35.3  हे मनुष्यो! याद करो अपने ऊपर अल्लाह के पुरस्कार को, क्या कोई उत्पत्तिकर्ता है अल्लाह कि सिवा, जो तुम्हें जीविका प्रदान करता हो आकाश तथा धरती से? नहीं है कोई वंदनीय, परन्तु वही। फिर तुम कहाँ फिरे जा रहे हो?

35.4 और यदि वे आपको झुठलाते हैं, तो झुठलाये जा चुके हैं बहुत-से रसूल आपसे पहले और अल्लाह ही की ओर फेरे जायेंगे सब विषय

अब सभी धर्मो मे आकाश और धरती के 14 भुवनों के स्वामी को सर्वोपरी और एक ही माना गया है चौदा भुवन एक पती होई ये उक्ती तो सर्वश्रृत है। 

 प्राचीन एवं बृहत्तम यजुर्वेदीय उपनिषद् जो  बृहदारण्यक उपनिषद् कहलाता है उसके शान्ति मन्त्र में भी परमात्मा के पुर्ण होने को वर्णन आत है।

इस उपनिषद् का प्रसिद्ध श्लोक निम्नलिखित है -

ॐ असतोमा सद्गमय।

तमसोमा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय ॥

ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ 

– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28.

निम्नलिखित मंत्र वृहदारण्यक उपनिषद के आरम्भ और अन्त में आता है-

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

जब इस पूर्ण परमात्माने सृष्टी निर्माण का संकल्प किया तो अपने रूप का विस्तार किया और फिर भी वो पूर्ण ही रहा । 

अब अल्लाह शब्द के बारे मे थोडा विस्तार से जानते है ।

अल्लाह (अरबी: الله ، अल्लाह्) अरबी भाषा में ईश्वर के लिये शब्द है। इसे मुख्यतः मुसलमानों और अरब ईसायों द्वारा एक ईश्वर का उल्लेख करने के लिये प्रयोग में लिया जाता है। जिसे फ़ारसी में ख़ुदा भी कहा जाता है।

अल्लाह शब्द अरबी भाषा के दो शब्दों अल-इलाह से मिलकर बना है। अल शब्द को वैसे ही इस्तेमाल करते हैं जैसे अंग्रेज़ी का शब्द ‘the’. इलाह का मतलब होता है ख़ुदा/ईष्ट/भगवान/प्रभु। अल्लाह शब्द एक सृजनकर्ता या पालनहार के लिए इस्तेमाल होता था। इसे हिंदुओं द्वारा प्रचलित शब्द भगवान के उदाहरण से समझ सकते हैं।

भगवान शब्द किसी एक देवता के लिए इस्तेमाल नहीं होता है। भगवान शब्द इस्तेमाल किया जाता है सृष्टि रचयिता के लिए। ठीक उसी तरह अरबी शब्द अल्लाह है। अरब इसे सृष्टि रचयिता को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल करते है। 

अल्लाह शब्द अल + इलाह शब्दों से बना है। इलाह शब्द का अर्थ सेमेटिक भाषाओं में ओर इब्रानी भाषा और पवित्र ग्रन्थों में भी देखा जा सकता है, जिस का अर्थ स्थूल रूप से "ईश्वर" है अल्लाह का मतलब होता है कि इसके सिवा कोई इबादत के लायक नहीं ।

संक्षेप मे कहो तो अल्लाह शब्द अरबी भाषा का है, और अरबी भाषा में उसका अर्थ है "निर्दिष्ट ख़ुदा"। अल्लाह शब्द अरबी भाषा में "अल" और "इलाह" शब्दों को जोड़ने से पैदा होता है। "अल" का अर्थ है -"ख़ास या निर्दिष्ट" और "इलाह" का अर्थ है -"परमेश्वर" या "ख़ुदा"। 

सूरा आयत 21:98 इस आयत का अर्थ अल्लाह के सिवाय किसी और को पूजने वाले जहन्नुम का ईंधन हैं एसा बताया जाता है। पूरी आयत इसतरह है।

21.98  निश्चय तुमसब तथा तुम जिन को पूज रहे हो अल्लाह के अतिरिक्त, नरक के ईंधन हैं, तुमसब वहाँ पहुँचने वाले हो।

यहा परमात्मा के अतिरिक्त जिस कीसी को भी आदमी अपने फायदे के लिये जाने समझे बगैर पूजता है उसका उल्लेख है अरब मे तो भूत ,जीन जींनात और भी बहोत से एसे देवता पूजे जाते थे जिन्हे अपने बच्चों की तक बली चढायी जाती थी दस बारा साल के छोटे बच्चो को जिंदा रेत मे दफन किया जाता था 

सूरा आयत 9:28  का अर्थ  मूर्तिपूजक नापाक(अपवित्र)हैं ! एसा बताया जा रहा है ये पूरी आयत इसतरह है।

﴾ 9.28 ﴿ हे ईमान वालो! मुश्रिक (मिश्रणवादी) मलीन हैं। अतः इस वर्ष के पश्चात् वे सम्मानित मस्जिद (काबा) के समीप भी न आयें और यदि तुम्हें निर्धनता का भय हो, तो अल्लाह तुम्हें अपनी दया से धनी कर देगा, यदि वह चाहे। वास्तव में, अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।

यहा भी कही भी मूर्तिपूजक शब्द नही बल की परमात्मा के साथ अन्य देवी देवतावोंको समिल करने वाले लोगों को  मुश्रिक (मिश्रणवादी) कहा गया है ।

(मुशरिक और शिर्क शब्दार्थ और व्याख्या उपर विस्तार से दी गयी है उसे पढे )

सूरा आयत 4:101  का अर्थ कुछ इसतरह बताया जाता है  काफिर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ! जब की ये पूरी आयत इसतरह है।

4.101 और जब तुम धरती में यात्रा करो, तो नमाज़[1] क़स्र (संक्षिप्त) करने में तुमपर कोई दोष नहीं, यदि तुम्हें डर हो कि काफ़िर तुम्हें सतायेंगे। वास्तव में, काफ़िर (अहंकारी) तुम्हारे खुले शत्रु हैं।

1. क़स्र का अर्थ चार रक्अत वाली नमाज़ को दो रक्अत पढ़ना है। यह अनुमति प्रत्येक यात्रा के लिये है, शत्रु का भय हो, या न हो। 

काफिर शब्द का अर्थ इस लेख मे उपर विस्तार से दिया है।( इस्लाम के अनुसार काफिर कौन है ? इस मुद्दे को पढे )

सूरा आयत 9:123  का अर्थ काफिरों पर जुल्म करो ! एसा लगाया जा रहा है । ये पूरी आयत इसतरह है।

9:123 हे ईमान वलो! अपने आस-पास के काफ़िरों (अहंकारी) से युध्द करो और चाहिए कि वे तुममें कुटिलता पायें तथा विश्वास रखो कि अल्लाह आज्ञाकारियों के साथ है।

काफिर शब्द का अर्थ इस लेख मे उपर विस्तार से दिया है।( इस्लाम के अनुसार काफिर कौन है ? इस मुद्दे को पढे) 

कुटिलता करनेवालोंसे कुटिलता का व्यवहार करो एसा तो श्रीकृष्ण ने भी पाडवों को समजाया था इसका मतलब ये नही की तूब धर्म और जाती के नाम पे कपट करते फिरो। 

सूरा आयत 9:29  इस आयत का अर्थ काफिरों को अपमानित कर उनसे जजिया कर लो ! एसा समझाया जाता है पूरी आयत इसतरह है।

9 : 29  (हे ईमान वालो!) उनसे युध्द करो, जो न तो अल्लाह (सत्य) पर ईमान लाते हैं और न अन्तिम दिन (प्रलय) पर और न जिसे, अल्लाह और उसके रसूल ने ह़राम (वर्जित) किया है, उसे ह़राम (वर्जित) समझते हैं, न सत्धर्म को अपना धर्म बनाते हैं, उनमें से जो पुस्तक दिये गये हैं, यहाँ तक कि वे अपने हाथ से जिज़या दें और वे अपमानित होकर रहें।

सूरा आयत 66:9  इस आयत का अर्थ  काफिरों और मुनाफिकों से जिहाद (जंग)करो ! बताया जाता है पूरी आयत इसतरह है 

66.9  हे नबी! आप जिहाद करें काफ़िरों (अहंकारी) और मुनाफ़िक़ों ( मीश्रणवादी) से और उनपर कड़ाई करें। उनका स्थान नरक है और वह बुरा स्थान है।

जो उपद्रव फैलाते हैं उन से कड़ा संघर्ष करें। इसे जिहाद कहते है । काफिर शब्द का अर्थ इस लेख मे उपर विस्तार से दिया है।( इस्लाम के अनुसार काफिर कौन है ? इस मुद्दे को पढे )

सूरा आयत 4:56 इस आयत का अर्थ  आयतों को इंकार करने वाले की खाल पकायेंगे ! एसा किया जाता है पूरी आयत इसतरह है।

4:56 वास्तव में, जिन लोगों ने हमारी आयतों के साथ कुफ़्र (अविश्वास) किया, हम उन्हें नरक में झोंक देंगे। जब-जब उनकी खालें पकेंगी, हम उनकी खालें बदल देंगे, ताकि वे यातना चखें, निःसंदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।

इसका उल्लेख गरूड पुराण मे भी है । इसमे मुस्लीम या गैर मुस्लीम एसी कोई बात नही है बल की इन्सान के कर्मो से और बुरे कर्मो के कर्मफल से ये आयत और गरूड पुराण के उल्लेख का संदर्भ अधीक जान पडता है । 

सूरा आयत 8:69 का मतलब इसतरह लगाया जाता है  लूट का सब माल (स्त्रियों सहित) हलाल है ! पूरी आयत इसतरह है।

 8:69  तो उस ग़नीमत में से[1] खाओ, वह ह़लाल (उचित) स्वच्छ है तथा अल्लाह के आज्ञाकारी रहो। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमा करने वाला, दयावान है।

1. आप (सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम) ने कहाः मेरी एक विशेषता यह भी है कि मेरे लिये ग़नीमत उचित कर दी गई, जो मुझ से पहले किसी नबी के लिये उचित नहीं थी। (बुख़ारीः335, मुस्लिमः521)

इस आयत को पूरा समझने के लिये इससे पहले की एक और बाद की एक आयत जानना जरूरी है।

﴾8. 68 ﴿ यदि इसके बारे में, पहले से अल्लाह का लेख (निर्णय) न होता, तो जो (अर्थ दण्ड) तुमने लिया[1] है, उसके लेने में तुम्हें बड़ी यातना दी जाती।

1. यह आयत बद्र के बंदियों के बारे में उतरी। जब अल्लाह के किसी आदेश के बिना आपस के प्रामर्श से उन से अर्थ दण्ड ले लिया गया। (इब्ने कसीर)

8:70  हे नबी! जो तुम्हारे हाथों में बंदी हैं, उनसे कह दो कि यदि अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में कोई भलाई देखी, तो तुम्हें उससे उत्तम चीज़ (ईमान) प्रदान करेगा, जो (अर्थ दण्ड) तुमसे लिया गया है और तुम्हें क्षमा कर देगा और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान है।

अब ये ध्यान मे रखना जरूरी है की मध्ययुगीन युध्द की यहा बात हो रही है अब इसतरह के युध्द दो देशो मे होते है और उसके नियम अलग अलग होते है दो समूदायो मे अब एसे युध्द देशांतरगत जायज नही है। 

सूरा आयत  9:14 का अर्थ अल्लाह मोमिनों के हाथों काफिरों को यातना देगा ! एसा बताया जा रहा है इस आयत को समझने के लिये इससे पहिले की आयत समझना जरूरी है। जो इसतरह है।

 9 : 13  तुम उन लोगों से युध्द क्यों नहीं करते, जिन्होंने अपने वचन भंग कर दिये तथा रसूल को निकालने का निश्चय किया और उन्होंने ही युध्द का आरंभ किया है? क्या तुम उनसे डरते हो? तो अल्लाह अधिक योग्य है कि तुम उससे डरो, यदि तुम ईमान[1] वाले हो।

1. आयत संख्या 7 से लेकर 13 तक यह बताया गया है कि शत्रु ने निरन्तर संधि को तोड़ा है। और तुम्हें युध्द के लिये बाध्य कर दिया है। अब उन के अत्याचार और आक्रमण को रोकने का यही उपाय रह गया है कि उन से युध्द किया जाये।

 9 : 14  उनसे युध्द करो, उन्हें अल्लाह तुम्हारे हाथों दण्ड देगा, उन्हें अपमानित करेगा, उनके विरुध्द तुम्हारी सहायता करेगा और ईमान वालों के दिलों का सब दुःख दूर करेगा।

सूरा आयत 8:57  का अर्थ  युद्ध-बन्दियों पर नृशंसता करो ! एसा बताया जा रहा है बल्की इस आयत मे युध्द बन्दियों का काई उल्लेख नही है सूरा 8 की 56, 57 और 58 आयतों मे  उन लोंगों का जिक्र है जो संधि के बावजूद बारबार युध्द करने को आते थे और पैगंबर के अपने ही कबीले के लोगों को भी युध्द के लिये उसकातेथे इनमे मदीना के यहूदी , फारसी और मक्का के पैगंबर के अपने ही कबीले के रिश्तेदार सामिल थे । जब ये लोग युध्द के लिये आये और रणक्षेत्र मे मिले तबे उनसे युध्द कर उन्हे दंडित करने की बात इन आयतों मे की गयी है। ये आयते इसतरह है ।    

 8 : 56  ये वे[1] लोग हैं, जिनसे आपने संधि की। फिर वे प्रत्येक अवसर पर अपना वचन भंग कर देते हैं और (अल्लाह से) नहीं डरते।

1. इस में मदीना के यहूदियों की ओर संकेत है। जिन से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की संधि थी। फिर भी वे मुसलमानों के विरोध में गतिशील थे और बद्र के तुरन्त बाद ही क़ुरैश को बदले के लिये भड़काने लगे थे।

 8 : 57  तो यदि ऐसे (वचनभंगी) आपको रणक्षेत्र में मिल जायें, तो उन्हें शिक्षाप्रद दण्ड दें, ताकि जो उनके पीछे हैं, वे शिक्षा ग्रहण करें।

8 : 58  और यदि आपको किसी जाति से विश्वासघात (संधि भंग करने) का भय हो, तो बराबरी के आधार पर संधि तोड़[1] दें। क्योंकि अल्लाह विश्वासघातियों से प्रेम नहीं करता।

1. अर्थात उन्हें पहले सूचित कर दो कि अब हमारे तुम्हारे बीच संधि नहीं है।  

सूरा आयत 32:22 का मतलब इस्लाम छोड़ने वालों से बदला लो ! एसा बताया जा रहा है बल्की इसमे खुदा ने रसूल से कहा है की हम अपराधियों से बदला लेने वाले हैं। ये नही कहा की आप या आप के अनुयायी उन्हसे बदला ले और इसमे मुस्लीम या गैर मुस्लीम की बात नही की गयी है बल्कि विश्वास रखनेवाले भक्त भी कभी कभी इश्वर का जाने अनजाने अनादर कर देते है तो एसे लोगों के लिये कहा है की उन्हे फिरसे हिदायत देने के लिये हम यानी अल्लाह / इश्वर खुद ही कुछ सांसारिक यातनाएं देंगे ताकी वो फिरसे नेकी के राह पे चले । ये आयते इसतरह है ।

 32:21  और हम अवश्य चखायेंगे उन्हें सांसारिक यातना, बड़ी यातना से पूर्व ताकि वे फिर[1] आयें।

1. अर्थात ईमान लायें ( अल्लाह/इश्वर पर विश्वास रखे ) और अपने कुकर्म से क्षमा याचना कर लें।

32:22  और उससे अधिक अत्याचारी कौन है, जिसे शिक्षा दी जाये उसके पालनहार की आयतों द्वारा, फिर विमुख हो जाये उनसे? वास्तव में, हम अपराधियों से बदला लेने वाले हैं।

परमात्मा अपने भक्तों को सही राह पे रखने के लिये कभी कभी दंडित भी करता है एसा तो हर धर्म मे कहा जाता है । इश्वर अपने भक्तो मे अहंकार नही रखता उन्हे समय समय पे अहंकार ना करने की हिदायत देता है फिर भी जो ना माने उन का पतन निश्चित होता है एसे उदारहण हर धर्म मे है दूर कींव जाये हिन्दू धर्म मे ही रावण , शिशुपाल आदी के उदाहरण है।        

अब इनमे निर्दिष्ट की गयी आयतों को सही मायनो मे  जानने के बाद भी क्या कोई कहे गा की आज कल जो आरोप इस्लाम और कुरान पे लगाये जा रहे है वो सही है। बीना जाने बीना सोचे समझे किसी भी बात का मतलब निकाल के पुरे धर्म को आरोपित करना कहा तक सही है।

जो आरोप लोग इस्लाम पर लगा रहे है और अनपढ़ / अर्धशिक्षीत मौलानोंसे शिक्षा ले कर जो आज के मुसलमान कर रहे है वो सब कितना गलत है ये जानने के लिये उपरोक्त विश्लेषण हर एक की मदद करेगा कींव्ह की मुसलमानों को अब अपनी ही बात सही से किसी को भी समझाना दूभर हो गया है। इसकी वजह है इसकी वजह है अतीरेकी मानसिकता के कट्टरवादी मुस्लीम जो कुछ नही जानते आधे अधूरे ग्यान से प्रेरित हो कर उसे पुरी तरहा जाने समझे बिना कुछ का कुछ कर डालते है और वो ग्यानी कट्टरवादी हिन्दू जो धर्मशास्त्र की तुलना किये बगैर केवल आरोपोंके लिये आरोप लगा रहे है दोनो ही समाज मे नफरत फैला के एक सभ्य समाज को बरबरता की और धकेल रहे है । 

इस्लाम का यथार्थ अर्थ जानने के लिये सिर्फ कुरान का शब्दशा ग्यान होना काफी नही है बल की उसके गहन अर्थो को समझने के लिये भाषाशास्त्र , धर्मशास्त्र तात्कालीन अरब का इतिहास और सामाजिक तानाबाना समझना जरूरी है सातहीसात अन्य धर्मो के ग्रंथ जैसे की बाइबल, वेद , पुरान और श्रीमत् भगवत गीता का अभ्यास होना भी जरूरी है इन सब की आपस मे तुलना किये बगैर किसी भी आयत की व्याख्या करना उसके मूलभूत अर्थ के सात अनर्थ करने जैसा है और आज कल के कट्टरवादी फिर वो हिन्दू , मुस्लीम या ख्रिचन हो सभी यही कर रहे है अगर इन धर्म गुरूवोंमे समाज के और दुनिया के अखिल मानवमात्र की भलाई की जरा भी चाहत है तो वो संपूर्ण ग्यान के बिना अपनी बात नही कहेंगे। मै कोई धर्म गुरू तो नही ना ही मै अपने सर्वज्ञ होने का दावा करती हू पर मै भाषाशास्त्र और धर्मशास्त्र की अभ्यासक जरूर हू मै इनपर प्रभुत्व का दावा तो नही करती पर मैने कौतुहल के लिये जिज्ञासा तृप्ति के लिये गीता, बाइबल और कुरान इन तीनो धर्म ग्रंथोंको पढा है और बाइबल स्टडी, मार्टिन लूथर कींग, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किये गये बाइबल के अभ्यास , कुरान के हिन्दी - मराठी भाषांतरन, हदीसे और उनपे लिखी टीका टिप्पणिया इस्लाम का सूफी पंथ और उसका साहित्य, वेदों की सहिता,दस मे से कुछ उपनिषदे ,  कुछ आरण्यके, दो महाकाव्य रामायण और महाभारत , भागवत महापुराण और श्रीमत् भगवत गीता पे लिखी अनेक टिकाये जैसे मराठी मे ज्ञानेश्वरी हिन्दी और अग्रेजी मे श्रीलप्रभूपाद की गीता और उसका विश्लेषण, संत साहित्य हिन्दी और मराठी इत्यादी का अपनी बाल बुध्दि से अध्ययन किया है तभी इस लेख मे कुछ तथ्य रखने का एक छोटा-सा प्रयास किया है । मेरे इस प्रयास से प्रेरणा लेके अगर कोई अभ्यासक इस विषय सखोल अभ्यास कर हर धर्म पर लगते आरोपों की यथार्थता मानव कल्यानार्थ दुनिया के आगे लाये गा और इस लेख से दुनिया मे बढता बवाल जरा भी कम हो गा तो मेरे इस लेख को लिखने का उद्देश्य सफल हुवा।

मेरे इस लेख को और भी अधिक अच्छी तरह समझने के लिये मेरी  ये दोनो blog लेख भी अवश्य पडे  

1 . क्या इस्लाम वैदिक धर्म का ही एक स्वरूप है ?

2 . मानव जन्म धर्म और विज्ञान 

✍️ *लेखीका : डाॅ रेश्मा पाटील* 

 🇮🇳 *निपाणी*

🗓️ *तारीख : 29/5/2022* 

📱  *मो नं 7411661082*

📲 *व्हाटसअॅप* *: 9901545321 

📧 *ईमेल :*  reshmaazadpatil@gmail.com

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प्रा.डाॅ. रेश्मा आझाद पाटील M.A.P.hd in Marathi

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